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हुए पीठ के नीचे के भाग की प्रमार्जना करना । उसे पीठ की वांसा की ४ प्रमार्जना समाजना । इन चार प्रमार्जनाओं में दो प्रमार्जना पीठकी और दो प्रमार्जना स्कंध की गिनने का व्यवहार प्रसिध्ध है।
पश्चात चरवले से या ओघे से दाहिने पाँव का मध्य भाग, दाहिने व बाँये भाग की अनुक्रमसे प्रमार्जना करना । इसी प्रकार बाँये पाँव की ३ प्रमार्जना करना । इस प्रकार दोनो पाँवो की ६ पाँव की प्रमार्जना हुई । इस तरह शरीर की कुल २५ प्रमार्जना करना (श्री प्रव० सारो० वृत्ति०) में पाँव की ६ प्रमार्जना मुहपत्ति से करने के लिए कहा है। लेकिन मुख के सामने रखी जाने वाली मुहपत्ति से पाँवो का स्पर्श उचित न होने से चरवले या ओघे से ही पाँव की प्रमार्जन करने का व्यवहार प्रचलित है।
॥ स्त्री के शरीर की १५ प्रतिलेखना ॥
स्त्रीयों के हृदय शीर्ष पाँव व स्कंध सदैव वस्त्र से आवृत रहता है, इसलिए इन तीन अंगो की प्रमार्जना उनको नही होती । शेष (दो हाथ की ३-३, मुखकी ३ और पाँवो की ३ - ३) १५ प्रतिलेखन स्त्रियों के शरीर की होती है। उसमें भी प्रतिक्रमण के समय साध्वीजी को शीर्ष खुल्ले रखना का व्यवहार होने से, ३ शीर्ष प्रतिलेखना सहित '१८ प्रमार्जना साध्वीजी को होती है
इस प्रकार शरीर की पच्चीस प्रतिलेखना के समय भी पच्चीस बोलो का मनमें चिंतन करने को कहा है।
प्रवृति में ऐसा व्यवहार देखा जाता है, प्रव सारो, और धर्म संग्रह की वृत्ति में तो साध्वीजी की १८ पडिलेहणा कही नही है, सिर्फ १५ पडिलेहणा कही है लेकिन भाष्य का क्षा. वि. सू. कृत बाला ववोध में कही है, (३) बायां हाथ के ३ भाग पडिलेहन करते (३) हास्य, रति, अरति परिहरु (३) दाहिना हाथ के ३ भाग पडिलेहन करते (३) मस्तक के हाथ के ३ भाग पडिलेहन करते (३) मुख के ऊपर पडिलेहन करते
(३) भय, शोक, जुगुप्सा परिहरु
(३) कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या परिहरु (३) रसगाख, ऋध्धिगाख, शातागाख परिहरु (३) मायाशल्य, नियाणशल्य, मिथ्यात्वशल्य परिहरु, लेहण करते (४) क्रोध, मान परिहरु ; माया, लोभ परिहरु
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(३) हृदय के ऊपर हाथ के ३ भाग पडि लेहन करते (४) २ कंधा और रपीठ के मीलाकर ४ भाग पडि (३) दाहिना पाँव के ३ भाग के पडि लेहण करते (३) बायाँ पांव के ३ भाग पडि लेहन करते
(३) पृथ्वीकाय अपकाय तेउकाय की रक्षा करूं (३) वायुकाय, वनस्पतिकाय, त्रशकाय की जयणा करूं
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