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से नहीं कर पाने से) अनिर्गमन, इत्यादि दोष प्राप्त होते है, अतः पाँच स्थान पर गुरु वदन नही करना चाहिये। ॥१५॥ अवतरण:-चार अनिषेध स्थान रुप (गुरु वंदन करने के ४ स्थान ) दर्शाति गाथा।
८वां दार पसंते आसणत्ये अ, उवसंते उवहिए ।
अणुनवितु मेहावी, किड़कम्मं पउंजड़ ॥१६॥ शब्दार्थ:- उवहिए= उपस्थित, अणुन्नवित्तु अनुज्ञा लेकर, मेहावी-बुद्धिमान, पउंजइ= करे, प्रयोजे,
गाथार्थ:- गुरु जब प्रशान्त (अव्यग्र) चित्त वाले हो, आसन पर बैठे हो, उपशान्त (क्रोधादि रहित) हो, और वंदन के समय शिष्य को 'छंदेण' इत्यादि वचन कहने के लिए उपस्थित (तत्पर) हो तब (इन ४ प्रसंग पर) बुद्धिमान शिष्य आज्ञा लेकर गुरु को वंदन करे। ॥१६॥
8 वां बार (गुरु वंदन के ८ कारण) पडिकमणे सज्झाए, काउस्सग्गा-वराह-पाहुणए ।
आलोयण संवरणे, उत्तम (अ)हे य वंदणयं ॥ शब्दार्थ:- गाथार्थ के अनुसार
गाथार्थ:-प्रतिक्रमण में, स्वाध्याय में, काउस्सग्ग में, अपराध ख़माने में, बड़े साधु पाहुणा पधारे उनको, आलोचना में, संवर में (प्रत्याख्यान के लिए) और उत्तम अर्थ में (याने संलेखनादि के लिए) गुरु को वंदन करना ॥१७॥ ' विशेषार्थ:१). प्रतिक्रमण के लिए :- प्रतिक्रमण में चार बार दो दो वांदणे दिये जाते है। उसे प्रतिक्रमण के लिए गुरु वंदन समजना। २). स्वाध्याय के लिए:- गुरु से वाचना लेने समय प्रथम गुरु को वंदन किया जाता है उसे स्वाध्याय के लिए समजना। * पट्टवणाका पवेयण का और अध्ययन के बाद काल समय का गुरु वंदन, स्वाध्याय के ये तीन गुरु वंदन साधु समाचारी से जानने योग्य है।