________________
। कण ||
७||
___ सिरकंप = मस्तक हिलाना, मूअ = मूक, मुंगा, (गुंगा) वारुणि = मदिरा, पेह = प्रेक्ष्य, बंदर की माफक देखना, स्ति = इस प्रकार, चइज्ज = त्यजना, दोस = दोष, उस्सग्गे = कायोत्सग में, समणीण = साध्वीजी को, स-वहु-वधु = वधू सहित, सड्दीण . = अविकाओं को ॥१७॥
• गाथार्थ :-अश्व, लता, स्तंभादिक, मंजिल, उद्ध, गाडाकी बेड़ी भीलडी, लगाम, वधू, लंबावस्त्र, स्तन, साध्वीजी, अंगुलियां तथा भवाँ घुमाना कौआ, कोठे के फल ॥५६॥
मस्तक हिलाना, मूक (गुंगा), मदिरा, बन्दर (कपि) इन दोषो का कायोत्सर्ग में त्याग करना चाहिये । साध्वीजी को लंबुत्तर स्तन और संयती और श्राविकाओं को वधू सहित (चार) दोष नही लगते । ॥१७॥ विशेषार्थ : कायोत्सर्ग में लगने वाले दोष १. अश्वः-अश्व की तरह पाँव मुड़ा के या ऊँचे रखकर कायोत्सर्ग करना । २. लता :-लता (बेल) के समान शरीर धुजातेहुए कायोत्सर्ग करना। ३. खंभाई :- स्तंभ या दीवाल विगेरे का सहारा लेकर कायोत्सर्ग करना । ४. माल :- मंजलि या मेडिको मस्तक लगाकर कायोत्सर्ग करना । | ५. उद्धि :- कायोत्सर्ग में बैलगाड़ी की उघ के माफक दोनों पाँव पास में
रखकर खड़े रहना। निगढ़:- कायोत्सर्ग में बेड़ी में पाँव झकड़े हों इस प्रकार दूर दूर |..
पाँव रखकर खड़े रहना। ७. शबरी :- कायोत्सर्ग में भीलडी की माफक दोनों हाथ गुह्य अंग पर रखकर
खड़े रहना।
(71