________________
1५९॥
२३. सात चैत्यवंदन पडिळमणे चेहय-जिमण-चरम-पडिळमण-सुअण-पडिबोहे। । चिह-वंदण इय जइणो सत्त १ वेला अहोरते ॥१७॥ अन्वयः- जइणो अहोरते पडिक्कमणे, जिमण चरम पडिक्कमण ।
सुअण पडिबोहे इय सत्त उ वेला चिइ-वंदण ||१९ ॥ ___ शब्दार्थः- पडिक्कमणे-प्रतिक्रमण में, चेइय = चैत्य में, प्रभुदर्शन के समय में, जिमण = गोचरी के समय में, चरमे संध्या को पच्चकरवाण के समय में, सुअण = सोने से पूर्व, पडिबोहे = प्रातः काल में, इय = इस प्रकार, जइणो = मुनिको, अहोरते = रात
और दिन में (अहोरात्रि में) __ गाथार्थ:-मुनिओं को रात्रि और दिन में, 'प्रतिक्रमण में दर्शन, 'गोचरी, संध्या, "प्रतिक्रमण, तथा 'सोने व जागने के समय, इस प्रकार सातबार चैत्यवंदन करने का विधान है।
विशेषार्थः-(१) प्रातः काल के प्रतिक्रमण में विशाल लोचन का (२) चैत्यमें मंदिर में प्रभु दर्शन के समय (३) गोचरी (आहार-पानी) करने से पूर्व पच्चक्रवाण पारने के समय (४) संध्या प्रतिक्रमण के समय,गोचरी करने के बाद, (५) संध्या प्रतिक्रमण में नमोऽस्तु वर्धमानाय का,(६) सोने से पूर्व संथारा पोरिसि पढाते समय चउकसाय का, (७)और प्रातः जागते समय कुसुमिण दुसुमिण का कायोत्सर्ग करने के बाद जगचिन्तामणि का, इस प्रकार यति को एक अहोरात्रि में (७) बार चैत्यवंदन अवश्य करना चाहिये । और अष्टमी आदि पर्वतिथिओंमें तो सर्व चैत्यवंदनार्थे सात से अधिक बार चैत्यवंदन करना चाहिये। कहा है कि:- अहमि चउहसीए सव्वाई चेहयाई सम्वेहि साहुर्हि वंदेयव्वाई इति वचनात "आठम चौदस को सर्व मुनिओं को, सर्व चैत्यों को वंदना करना।"
ये सात चैत्यवंदन भिन्न भिन्न विधि से होते हैं । वो चालुविधि गुरुगम से जानना।
(75)