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गाथार्थ :- जिन, मुनि, श्रुत और सिद्ध ये चार वंदन करने योग्य हैं । और यहाँ पर देव स्मरण करने योग्य हैं ।
नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव ये जिनेश्वरों के भेदो को लेकर चार प्रकार के जिनेश्वर हैं ।
विशेषार्थ :- नाम - स्थापनादि चारों प्रकार के जिनेश्वर वंदनीय है। फिर भी श्रुतस्तव में श्रुतज्ञान को, सिद्धाणं में सिद्ध भगवन्तो को, जावंत के वि साहू में श्रमण मुनिओं को वंदना होती है । याने चैत्यवंदना में वंदन योग्य सर्वको वंदना की गयी है । इस तरह करने से एक रीत से अरिहंत परमात्मा की वंदना पूर्ण होती है ।
तथा सम्यग् ष्टि देवताओं का यद्यपि चौथा गुणस्थानक है और देशविरतिधरका पाँचवा, सर्वविरतिरों का छट्ठा व सातवाँ गुणस्थानक है फिरभी शासन भक्ति करनेवाले सम्यग् दृष्टि देव देशविरतिघर और सर्वविरति धरों को स्मरणादि करने योग्य है । कारण कि शासन मे उत्पन्न होने वाले उपद्रवों को वो दूर करते हैं । चैत्यवंदनादि से प्राप्त होनेवाली इष्टसिध्धि में आनेवाले विघ्नो को दूर करते हैं। शासन के प्रभावक कार्य करवाने के लिए भी उनका स्मरण रूप कायोत्सर्ग करने में आता है। ऐसा कोई कार्य न भी हो, फिर भी प्रतिक्रमण आदि क्रिया प्रसंग में, चैत्यवंदना में चौथी स्तुति द्वारा विरतिवंत उनका स्मरण करते हैं । ये बात अर्थ शून्य नही है, कारण कि प्रतिक्रमणादि प्रसंग पर प्रतिदिन शासन सेवा के रसिक देवताओं को याद करने से उनका सत्कार होता है ।
सम्यग् दृष्टि देव क्वचित् स्व स्मरण को ध्यान मे न लें, फिर भी मंत्रा -क्षरतुल्य वेयावच्चगराणं - सूत्र के अक्षरों से विघ्नोपशान्ति आदि इष्ट फल सिध्धि कही है । तथा शासन के सेवक होने के कारण उनका सम्यग् दर्शन गुणरूप भी गुण - गुणी के अभेद से बनता है | जिससे उनके स्मरण में दर्शन पद की आराधना सर्वविरतिवंत को भी बाधक
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है । तथा प्रतिक्रमणादि क्रिया सकलसंघ की जाहेर क्रिया है। जिससे श्रीसकल संघ जाहेर प्रसंगों पर अपने अंगभूत तत्वोंको स्मरण में रखता है । इस विषय पर विशेष चिन्तन करने योग्य है ।
परंपरा से शासनदेवकी स्तुति, तुष्टि, पुष्टि तथा स्मरणादिक का हेतु मात्र शासन सेवा ही है । जिससे परंपरासे शासन की ही भक्ति याने रत्नत्रयी की आराधना है ।
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