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___ संविज्ञ :- विधि में रसिक, गीतार्थ, श्रेष्ठ पूर्व सूरिवर (आचार्य भगवन्त) सूत्र विरुद्ध समाचारी की प्ररुपणा नही करते हैं।
तथा किसी समय कोई वस्तु बहुत प्रचलित हो गई हो, लेकिन उस विषय का शास्त्र में कही उल्लेख नहीं मिला हो, तथा उसका निषेध भी न किया हो । ऐसी स्थितिमें गीतार्थ मौन रहते हैं।
लेकिन कितनिक नयी बातें ऐसी भी होती है कि जिसका साक्षात् शब्द से विधान न हो, और नहीं निषेध हो, फिरभी शैली, तत्त्व और हित, मर्यादा के विरुद्ध हो, वैसी ख्याति प्राप्त वस्तु का भी गीतार्थ निषेध कर सकते हैं । ___ ये विषय अति गहन है, समजने के लायक है, क्योंकि आजकल नयी नयी संस्थाएँ
और नये नये विचारों के आंदोलक, संघ जैसी पवित्र मूल संस्था को और आज्ञा को दबाने का भरचक प्रयत्न कर रहे हैं । ऐसी संस्थाओं को और विचारकों को, पूर्वापर के नियम मानने वाले, तथा शास्त्र की आज्ञा को शिरसावंद्य माननेवाले भी बहुत सी बार गुमराह होकर उसे सहारा दे देते हैं । अतः इस विषय में विशेष मन्थन करने की आवश्यकता है । १३ : वंदन करने योग्य १४ : स्मरण करने योग्य
१५ : चार प्रकार के जिनेश्वर चउ वंदणिज्ज जिण-मुणि-सुय-सिध्धा,इह सुरा य सरणिज्जा । चउह जिणा नाम - ठवण - दन्व- भाव - जिणभेएणं ॥१०॥
(अन्वय :- जिण-मुणि - सुय - सिध्या चउ वंदणिज्ज, इह सुरा सरणिज्जा नाम, ठवण, दव्व - भाव - जिण - भेएण चउह जिणा |॥५०॥
शब्दार्थ :- चउ-चार, वंदणिज्ज वंदन करने योग्य, जिण-मुणि-सुय- सिध्धा = जिनेश्वर, मुनि, श्रुत और सिध्ध भगवन्त, इह = यहाँ, चैत्यवंदनमें, सुरा = देव, सरणिज्जा = स्मरण करने योग्य, चउह = चार प्रकार के, जिणा = जिनेश्वर, नाम = नाम, ठवण = स्थापना, दव्व = द्रव्य, भाव = भाव, जिणभेएणं = जिनेश्वरों के भेदोंको लेकर
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