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रत्नत्रयी की आराधना सापेक्ष शासन भक्ति है और शासन के सेवकों की भक्ति स्मरणादिक शासन की आराधना से निरपेक्ष नहीं होनी चाहिये । यदि शासन से निरपेक्ष अविरत्यदिक की शांति, तुष्टि हो तो वह दोष कारक है अन्यथा लाभकारक है । तथा अधिकारी व्यक्ति से भी अधिकार सभी को पूज्य है । सामान्य केवली, गणधर भगवन्त छद्मस्थ होते हैं फिरभी उनकी आज्ञामें रहते हैं । क्योंकि गणधर भगवन्त तीर्थंकरों की तरह शासन के अधिकार के ऊपर पदस्थ हैं । अर्थात् व्यक्ति के स्थानपर अधिकार को सम्मान देना है। इसी तरह शासन के अधिष्ठायक देव और देवियाँ इन्द्रादिक देव, नृपति, व संघकी देखरेख करनेवाले, विगेरे पद से विभूषित (अधिकारवाला पद) हों तो उनका औचित्य करना शासन का ही औचित्य है । और आचार्य भगवन्त और मुनिओं जिस तरह अपने त्याग के लिये पूज्य हैं, इसके अलावा शासनका अधिकार भोगनेवाले हैं, इस तरीके से भी वे पूज्य हैं। । याने शासनहित साधक तथा प्रकार के द्रव्य क्षेत्र काल भाव के संयोगानुसार अविरति सम्यग्दृष्टि या मिथ्याद्रष्टि हो और शासन के हितमें उपयोगी हों, तो उनका औचित्य करने के लिए शास्त्राज्ञा अनेक स्थानोपर दिखाई देती है। भूलसे शासन को उपयोगी मान लिया हो या अनौचित्य को उचित समज लिया हो, या अल्पबुद्धि के कारण जिसका औचित्य करने की आवश्यकता न हो और किया हो । या जरूरत से कम - ज्यादा औचित्य किया हो, इस प्रकार की भूलें व्यक्ति द्वारा संभव है । लेकिन ये सारीबातें एकरीत से शासन शैली के
आधारसे वास्तविक स्वरूप में जैन शास्त्र सम्मत ज्ञात होता है। इसके लिए अनेक उदाहरण प्राचीनकाल से मिलते आये हैं। अतः सर्व शासन सेवकों के उपलक्षण रूप सुरस्मरण का बारहवाँ अधिकार और उनके लिए की चौथी स्तुति शास्त्राज्ञा सम्मत है । सुरस्मरण के उपलक्षण रुप इसी आधार से कहते हैं कि वेयावच्चगराणं सूत्र में देव-देवी जैसा शब्द नही है, लेकिन सामान्य रीत से कवैयावृत्य करनेवाले, शांति करनेवाले सम्यग्-ष्टिको समाधि करनेवाले,ज ऐसे सामान्य शब्दों का प्रयोग है। शासन प्रेमी से भी शासन का वैयावृत्य
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