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इसके बाद अरिहंत चेइआणं से ठामि काउस्सग्गं तक के संपूर्ण सूत्रों में जिस जिस चैत्य में वंदना करनी है, उस चैत्यमें विराजमान सर्व स्थापना जिनको अर्थात् सर्व जिन प्रतिमाओं को वंदना की है। “॥ इति तृतीयाधिकारः॥"
उसके बाद संपूर्ण लोगस्स में वर्तमान अवसर्पिणी कालमें होगये २४ तीर्थंकरों के नामों की स्तवना की गयी होने से नाम जिनेश्वरों को वंदना का अधिकार है । "|| इति चतुर्थाधिकार॥"
इस तरह इन ४ अधिकारों में श्री जिनेश्वर के नाम स्थापना द्रव्य और भाव इन चारों निक्षेपों को पश्चानुपूर्वी क्रमसे वंदना की है।
जगत में बीते हुए भाव को अथवा भविष्यकाल में होनेवाले भाव का जो कारण (अवस्था) उसे सर्वज्ञ भगवन्त द्रव्य कहते हैं । और वो सचित्त तथा अचित्त दो प्रकार का है। ||१|| इस तरह भावतीर्थकरों की बाल्यावस्थादि व पूर्व अवस्था, भावी में कारण रुप द्रव्यजिन है और सिध्ध अवस्था भी भूतकारणरूप द्रव्यजिन है। तथा यहाँ भूतकाल और भविष्य काल के द्रव्यजिन, वे सभी पन्दरह कर्म भूमिक्षेत्र के समजना । लेकिन वर्तमान कालके (भरतादि १० क्षेत्र की अपेक्षा से चल रहे पांचवे आरे में) तो पांच महाविदेह में जन्म ले चुके तद् भवक गृहस्थ तीर्थंकर और शेष १० में अर्वाग तृतीयभविक तीर्थकर द्रव्यजिन जानना।
- (२) इस अधिकार का पर्यन्त भाग अरिहंत चेइ० से अन्नत्थ पर्यन्त १ नवकार का काउस्सग्ग के बाद अधिकृत जिन या चैत्यादि से संबंधित प्रथम स्तुति कही जाती है. उस स्तुति के अन्त तक है । इस प्रकार धर्मसंग्रह की वृत्ति में कहा है । इस तरह आगे के अधिकार जो चूलिका स्तुति वाले हैं, वो सर्व चूलिका स्तुति पर्यन्त समजना | यहाँ पर्यन्तमे कही जाने वाली प्रत्येक स्तुति चुलिका स्तुति है । प्रव० सारो० वृत्तिमें स्पष्ट रुपसे पर्यन्तवर्ती स्तुति तक चारों अधिकिार गिने हैं।
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