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पढमहिगारे वंदे भावजिणे बीयअंमि दव्वजिणे । इगचेइयहवण जिणे, तइयचउत्थंमि नामजिणे ॥ ४३ ॥
गाथार्थ :- प्रथम अधिकारमें भावजिनको, दूसरे अधिकारमें द्रव्यजिनको, तीसरे अधिकार में एक चैत्य के स्थापना जिनको, और चौथे अधिकार में नाम जिनको वंदना करता हुं ॥४३॥
विशेषार्थ :- नमुत्थुणं में नमुत्थुणं से जिअभयाणं तक के पाठ में भावजिन याने तीर्थंकर नामकर्म के विपाकोदय वाले केवलज्ञानी तीर्थंकर परमात्मा जो कि देशनादि दारा भव्यजीवों का उद्धार करते हुए पृथ्वीतल को अपने चरणों से पावन करते हुए विचरते हैं या विचरते थे, उस अवस्था को लक्ष्यमें रखकर वंदना की गयी है " || इति प्रथमाधिकारः || ”
उसके बाद नमुत्थुण की अंतिम गाथा में (जेअ अइया सिध्धा से सव्वे तिविहेण वंदामि तक में ) द्रव्यजिन याने पूर्व के तीसरे भवमें निकाचित तीर्थंकर नामकर्म का बंध- करके, उसके प्रदेशोदयमें रहने वाले ऐसे तीर्थंकर के जीव, जिन्होने अभितक केवलज्ञान प्राप्त कर भाव तीर्थंकर पद को प्राप्त नहीं किया हो, लेकिन भविष्य में प्राप्त करेंगे, उन्हे द्रव्यजिन कहते हैं। तथा भाव तीर्थंकर पद प्राप्त करके जिन्होंने सिध्धिपद
को प्राप्त कर लिया हो। ऐसी सिद्धावस्थावाले को भी द्रव्यजिन कहलाते हैं । इस तरह
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उभय पार्श्ववर्ती अवस्थावाले दोनों ही प्रकार के 'द्रव्यजिन को वंदना की है। " ॥ इति
द्वितीयाधिकारः ॥”
१. भूयस्स भावीणो वा भावस्सि कारणं तु जं लोए । तं सव्वं सव्वधूं, सचेथणाचेयणं बेंति ||१|| आवश्यकादि अनेकग्रंथ
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