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स्वयं के उपयोग के लिए खाने पीने या सुंघने की अचित्त वस्तु हो तो उस पे भी परमात्मा की दुष्टि न पडे, वैसे चैत्य के बाहर छोडकर प्रवेश करना चाहिये । यदि परमात्मा की दुष्टि में ये वस्तुएँ आ गयी हो तो उसका उपयोग नही करना चाहिये । इस प्रकार मर्यादा पालन से परमात्मा का लोकोत्तर विनय सचवाता है ।
खेस रखने का विधि अंग पूजा तथा उत्कुष्ट चैत्यवंदन करनेवालों के लिए है। फिर भी अन्य पुरुषों को पघडी और खेस सहित प्रभु के जिनालय में प्रवेश करना चाहिये । वर्ना प्रभु का अविनय गिना जाता है। तथा पूजा के समय पुरुषों के दो वस्त्र, और स्त्रियों को
धन्य से तीन वस्त्र का प्रयोग करना चाहिये । स्त्रियों को हाथ जोडकर मस्तक झुकाना चाहिये लेकिन हाथ ऊंचे कर अंजलि को मस्तक पर लगाने की आवश्यकता नही, पूर्व में गाथा नं ९ के अर्थ के प्रसंग मे ये बात कह दी गयी हैं। स्त्रियाँ वस्त्रावृत अंगवाली ही होनी चाहिये इसलिए स्त्रियों के लिए ४ व ५ - वा अभिगम का यथायोग निषेध कहा है।
दूसरी रीत से पाँच अभिगम
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इय पंच - विहा- भिगमो, अहवा मुच्चंति राय चिण्हाई | खग्गं छत्तोवाणह मउडं चमरे अ पंचमए ||२१||
अन्वयः - इय पंचविहाऽभिगमो, अहवा राय - चिण्हाई-खग्गं छत्तोवाणह मउड अ पंचम चमरे मुच्चति ॥२१॥
शब्दार्थ : - इय-ये (पूर्व में कहे गये), पंच विहा भिगमो = पाँच प्रकार का अभिगम, अहवा = अथवा, मुच्चंति = रखता है, राय- चिण्हाई राजचिन्ह, खग्गं तलवार, छत्त= छत्र, उवाहण= मोजडी, मउडं मुगुट, चमरे=चँवर, पंचमए= पांचवा ||२१||
गाथार्थ :- ये पांच प्रकार का अभिगम है, अथवा तलवार, छत्र,
मुगुट और पांचवा चंवर ये राजचिन्ह बाहर रखना है ।
मोजडी, (जुते)
विशेषार्थ :- दर्शन करने के लिए आनेवाले महर्द्धिक राजा आदि को पांच प्रकार के राजचिन्हो को बाहर रखकर ही जिनालय में प्रवेश करना चाहिये । कारण की तीर्थंकर परमात्मा तीन लोक के राजा है, उनके सामने “राजा हूं” ऐसा दर्शाना परमात्मा का अविनय है। प्रभु के पास तो सेवकभाव दर्शाना चाहिये । परमात्मा का सेवक भी परम पुण्योदय तो ही बन सकता है।
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