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संस्कार रूप में अंकित होता है। इसे ही जैनदर्शन में कर्मबंध कहा है। यहाँ कर्मसिद्धान्त-विषयक प्रकृति, स्थिति, अनुभाग एवं प्रदेशबंध, कर्म की आठ प्रकृतियाँ, कर्म विपाक के चार प्रकार, करण सिद्धान्त आदि विभिन्न घटकों का संक्षेप में विवेचन किया जाएगा। बंध चतुष्टय
जैन धर्म में प्रवृत्ति के मानसिक, वाचिक और कायिक ये तीन प्रकार कहे हैं। जिन प्रवृत्तियों से आत्म-प्रदेशों में स्पंदन (हलचल) हो, प्रभाव पड़े अर्थात् उनसे संबंध स्थापित हो जाय, उन प्रवृत्तियों को योग कहा है। योग से आत्म-प्रदेशों पर पड़ा प्रभाव, चित्र या अंकित संस्कार जिस प्रकार का है, उसे प्रकृति बंध कहते हैं। प्रवृत्तियों की प्रबलता से, सघनता से उस प्रभाव का चित्र जितना स्पष्ट अंकित होता है एवं प्रभाव जितना पुष्ट होता है, उसे प्रदेश बंध कहा जाता है। इसलिए प्रकृति और प्रदेश के बंध का कारण योग या प्रवृत्ति को बताया गया है। इन तीनों प्रवृत्तियों में जैसी तीव्र मंद रसानुभूति होती है वैसा ही तीव्र-मंद रसबंध या अनुभाग बंध होता है। जीव के साथ कर्मों के रहने की काल मर्यादा को स्थिति बंध कहा है। रसानुभूति को जैन दर्शन में कषाय कहा है। अतः जैन दर्शन में कषाय को ही स्थिति व अनुभाग बंध का कारण कहा है। इस प्रकार कर्म बंध के 1. प्रकृति बंध 2. स्थिति बंध 3. अनुभाग बंध और 4. प्रदेश बंध, ये चार प्रकार हैं। बंध-सत्ता-उदीरणा-उदय
कर्म-बंध के ये चारों प्रकार भविष्य में फल देने से संबंध रखते हैं। किसी क्रिया या कार्य का प्रभाव आत्मा में अंकित होना कर्मबंध है। अंतःकरण पर पड़े प्रभाव का प्रकाशन भविष्य में ही सम्भव है। प्रभाव का यह प्रकाशन ही कर्म का परिणाम है। कर्म के इस परिणाम को, कर्म-विपाक या कर्मोदय कहा गया है। प्रभाव का प्रकाशन अथवा उदय तदनुकूल विभिन्न कारण मिलने पर ही प्रकट होता है। जब तक प्रकट नहीं होता, तब तक वह संस्कार अंतःकरण में, अचेतन मन में, कारण शरीर में, कार्मण शरीर में अंकित रहता है, उसमें स्फूरणा नहीं होती। फिर भी संस्कार का सत्त्व विद्यमान रहता है। इसे कर्म की सत्ता कहा जाता है। निमित्त आदि किसी कारण से उस संस्कार में प्रकट या उदय होने के लिए
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प्राक्कथन