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उनका द्रष्टा रहता है, उन उदीयमान कर्मों के प्रति कोई प्रतिक्रिया नहीं करता है, उन्हें अच्छा-बुरा नहीं समझता है, ये कर्म क्यों उदय हो रहे हैं, ऐसा भी नहीं विचारता है, वह निर्विकल्पता से मिलने वाली आंशिक शान्ति के रस में रमण नहीं करता है। अनाश्रय (पराश्रय के त्याग) से मिली आंशिक स्वाधीनता के रस को महत्त्व नहीं देता है। उससे संतुष्ट नहीं होता है। तब वह इन्द्रियातीत, देहातीत, लोकातीत, भवातीत, गुणातीत होकर अनन्त माधुर्य (प्रीति) रूप वीतरागता का अनुभव करता है। ऐसा रस-एक बार चखने पर उसमें फिर परिवर्तनशील, क्षणिक एवं आकुलतायुक्त विषय-रस की कामना कभी नहीं जगती है। इन्द्रिय, देह, लोक (संसार), गुण आदि से सुख न लेना, इनके सुख को पसन्द न करना ही इनसे अतीत होना है। जब साधक की सरलता, विनम्रता, सहजता, स्वाभाविकता इतनी बढ़ जाती है कि वह जीवन का अंग बन जाती है तो साधक गुणों से अभिन्न हो जाता है। फिर गुण और गुणी का, साध्य और साधक का, साधन और सिद्धि का भेद व भिन्नता मिट जाती है। क्योंकि चीज वही दिखाई देती है जो अपने से भिन्न हो। जो अपने से अभिन्न होती है वह दिखाई नहीं देती है। अतः जब तक साधक को अपने में गुण होने का भास होता है तब तक उसमें और गुणों में एकत्व व अभिन्नता नहीं हुई, ऐसा समझना चाहिए।
तात्पर्य यह है कि पुण्य के साथ रहा हुआ कषायभाव स्थिति बंध का कारण है। पुण्य का भी स्थिति बंध, कषाय, पाप व विकार का सूचक है अतः अशुभ है, परन्तु इससे पुण्य अशुभ नहीं हो जाता है। उदाहरणार्थ शरीर के साथ लगा हुआ रोग शरीर के स्वास्थ्य के लिए घातक है, परन्तु रोग हो जाने से शरीर बुरा नहीं हो जाता है, हेय नहीं हो जाता है, बुरा या हेय रोग ही होता है। इसी प्रकार पुण्य के साथ स्थिति बंध लगा होने से पुण्य हेय नहीं हो जाता है, पुण्य का केवल स्थिति बंध ही बुरा है, अनुभाग बुरा नहीं है, क्योंकि पुण्य का फल अनुभाग से मिलता है। कर्म-सिद्धान्त के विभिन्न घटक
'कर्म' शब्द का अर्थ क्रिया है अर्थात् जीव द्वारा की जाने वाली क्रिया या प्रवृत्ति को कर्म कहते हैं। प्रवृत्ति का प्रभाव प्राणी के अंतस्तल पर
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प्राक्कथन