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प्रार्यमतलीला ॥
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पाली व्यभिचारिणी के तुल्य अपराध | वालोंको बहुत दान दिया करते हैं। को मत करो
| हम स्वामी जीके येद भाष्यसे कश्यावय ऋग्वेद दूसरा मंडल सक्त ३२ ०४५/ नाच लिखत ह जा इस बातका सिद्ध
"मैं मात्मा से उस रात्रि के जो पर्थ | करते हैं: - प्रकाशित चंद्रमा से युक्त है समान व
ऋग्वंद प्रथम मंडल सूक्त १२१ ऋचा३ र्तमान सुन्दर रपर्दा करने योग्य जिम! "हे बलवान विद्वाना हम लोगों से स्त्री की शोभन स्तति के साथ पर्दा स्तुति किये हुए श्राप हमको सुखी कशे करता व नमको और प्रशंसाको प्राप्त होता हुआ सत्का करने वाली हम लोगों को सुने और रक
र करने योग्य पुरुष अतीव सुख की भाजाने न छेदन करने योग्य सई से कर्म वना करने वाला हो।' मीने का करें (शनदायम) असंख्य- ऋग्वेद पथम मण्डल सूक्त १६९ ऋचा ४ ) दाय भाग वाले की सीब ( उक्थ्यम् ), हे बहुत पदार्थोंके देनेवाले प्रापतो और प्रशंमा के योग्य असंख्य दाय हमारे लिये अतीब बलवती दक्षिणाके भागी उत्तम संतान को दई-- माघ दान जैसे दिया जाय वैसे दान
हे रात्रि के ममान मुख देने वाली को तथा इस दुगधादि धनको दीजिये जो आप की सुन्दर रूप वाली दीति कि जिमसे आपकी और पयमकी भी और उत्तम बुद्धि हैं जिनगे श्राप देने जो स्तुति करने वाली हैं वे मधर उबाले पति के लिये धनों को देती हो तम दूधके भरे हुए स्तनके समान चाउन से हम लोगों को प्राज प्रसन्नचित्त | हती और अन्नादिकों के साथ बछरों हुई समीप आओ। हे सौभाग्य यक्त को पिलाती हैं -" स्त्री उत्सम देने वाली होती हई हम ऋगवद सप्तम मण्डल सूक्त २५ ऋ०४ लोगों के लिये अरुप प्रकार से पुष्टि
| 'हे--मेनापति--श्राप के सदृश रक्षा फो देशो-"
| करने वाले के दानके निमित्त उद्यत हूं
उम मेरे लिये तेजस्वी श्राप घर सिद्ध आर्य मत लीला।
करो बनाओ"
ऋग्वेद सप्तम मंडल सूक्त ३० ऋ०४ __ स्वामी दयानन्द सरस्वतीजीने जिस | "हमलोग प्राप की प्रशंमा धरै श्राप प्रकार घेदोंका अर्थ किया है उन अर्थों | हम लोगों के लिये धनों को देनो." के पढ़ने से मालूम होता है कि वेदोंके ऋग्वेद सप्तम मंडल मूक्त ३१ ऋ०५
ऋग्वेद सप्तम : गीत हुमवा भाटोंके बनाये हुए हैं जो "हे सद्गण और हरगाशील घोड़ों मनुष्यों की स्तुति करके और स्ततिके वाले हम लोग शाप के जिन पदार्थों अनेक कवित्त सुनाकर दाम मांगा कर को मांगते हैं उनको श्राश्वर्य है आप से हैं- ग्रामीण लोग ऐसे स्तुति करने। हम लोगों के लिये कब देशोगे--..