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प्रार्यमतलीला ।
भाई हैं जिन को देखकर हिंदुस्तानी | नाम धर्म है। इसही साधन के गृहस्थ आश्चर्य मानते हैं परंतु उनका सब और मन्पास मादिक अनेक दर्जे महजान नहु अर्थात् प्रचंतन-पद्गल प-|र्षियों ने बांध हैं और इस ही के सादार्थ के विषयमें है जीवात्मा के वि-धनों के बर्णन में अनेक शाख रचे हैं। पय को वह कुछ भी नहीं जानते हैं इन ही शास्त्रों के कारण हिन्दुस्तानका और वह यह मानते भी हैं कि जी
गौरव है और सत्य धर्म की प्रवृत्ति है। वात्मा के विषय में जो कुछ जान प्राप्त यद्यपि हम कलिकाल में इस धर्मपर हो सकता है वह हिंदुस्तानसे ही हो |
| चलने वाले बिरले ही रह गये हैं विसकता है. यह ही कारण है कि वह
शेष कर वाह्य माम्बर के ही धर्माहिंदुस्तान के शास्त्रों को बहुत खोज
स्मा दिखाई देते हैं परन्तु ऋषि प्र. करते हैं और हिंदुस्तान का जो कोई
णीत शास्त्रोंका विद्यमान रहना और धार्मिक विद्वान् उनके देश में जाता है।
है। मनुष्यों की उन पर श्रद्धा होना भी उसका वह मादर मस्कार करते हैं और
गनीमत था और इतनेही से धर्म की उसके व्याख्यान को ध्यानसे सुनते हैं।
बाहुन कुछ स्थिति थी। परन्तु इम कजीवात्मा के विषय को जानने वाले निकाल को इतना भी मंज़ा नहीं है हिन्दुस्तानियों का यह सिद्धांत सर्व और कल न हुवा तो इम काल के प्रमान्य है कि जीव नित्य है, अनादि भाव से स्वामी दयानन्द सरस्वती जी है, अनन्त है, नई अर्थात् अचेतन प. महाराज पैदा होगये जिन्हों ने धर्म दार्थ मे भिन्न है, कर्म बश बंध में फंमा
| को सर्वथा निर्मल कर देना ही अपना है इमी से दुःख भोगता है परंतु कर्मों | को दूर कर बंधन से मुक्त हो सकता है।
कर्तव्य समझा और धर्मको एक बच्चों
का खेल बनाकर हमारों भोले भाईयों जिम को मुक्ति कहते हैं और मुक्ति दशा को प्राप्त होकर मदा परमानन्द |
| की मति (बुद्धि) पर अज्ञान का पर्दा में मग्न रहता है। यह गूढ बात हि- डाल दिया और उम हिन्दुस्तान में म्दुस्तान के ही शास्त्रों में मिलती है जो जीवात्मा और धर्म के ज्ञान में जकि जीव का पुरुषार्थ सुख की प्राप्ति गत् प्रसिद्ध है ऐपा विषका बीज बो. और दुःख का बियांग करना ही है। कार
कार चनदिये कि जिमसे सत्य धर्म बि. दुःस्त्र प्राप्त होता है इच्छा से और सुख फुल ही नष्ट भष्ट हो जाये वह अपने गाम है सच्छा के न होने का इस का- धेनों को यह विलक्षम मिदान्त मिखा रण परम श्रानन्द जिम को मुक्ति कह- गये हैं कि जीवात्मा कभी कर्मों से ते हैं यह इच्छाके सम्पर्ण प्रभाव होने | रहिन हो ही नहीं सकता है बरन से ही होती है। हम ही हेत इच्छा| इच्छा द्वेष आदिक उपाधि इस के वा राग द्वेष के दूर करमेके साधनोंका | सदा बनी ही रहती हैं।
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