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मार्यमतलीसा ।
ला और जिस मनसे पान करता है। सत्या प्रकाश पष्ठ ६० और जिप का ध्यान करता है इन छाद्वेषप्रयत सुखदुःख जानान्यातीनों बातों का भी भेद मिटाकर प- | मनो लिंगमिति ,, ॥ पायः॥ . रमेश्वर के आनन्द स्वरुप जान में ऐसा १ । प्रा० १ । २०१० मग्न हो जाये कि इस बात का भंद जिममें ( इच्छा ) राग, (प) और, ही नर कि कौन ध्यान करता है ( प्रयत्न ) पुरुषार्थ, सुख, दुःख, (जाम) और किम का ध्यान करता है परन्तु जानना गुण हों वह जीवात्मा । वैशे. मुक्ति प्राप्त होने के पश्चात् स्वामी जी
षिश में इतना विशेष १ "प्राणापा. यह बताते हैं कि वह मर्व ब्रह्मांड की ननिमेवोन्मेष जीवन मनोगतीन्द्रि सैर करता हुमा फिरै ! क्या मुक्ति प्रा.
यान्तर विज्ञाराः सुख दुःखेकाषप्रप्त होने के पश्चात् जीव को परमेश्वर के
| पाश्चात्मनो निगानि,, ॥ वै० म० मानन्द स्वरूप शानमें मग्न रहने मौर
३। प्रा०२ । सू०४॥ अपने आप को भलाकर परमेश्वर ही में |
| ( प्रागा ) भीतर से वायु को निका-1 तल्लीन रहने की जरूरत नहीं रहती है।
|लना ( भगन ) बाहर मे वाप को या मुक्ति साधन के समय तो मान-भीतर लेना (निमेष) मांस को नीचे
र में तल्लीन होने से प्रासदांकना ( उम्मेष) प्रांस को ऊपर उहोता है और मुक्ति प्राप्त होने के प
| ठाना (जीवन) प्राय का धारण कबात वानमार सारे ब्रह्मांड में पू. रमा ( मनः ) ममन विचार प्रांत मते फिरने से प्राप्त होता है? जान ( गति) पंचष्ट गमन करना । अफमोम ! स्वामी जी ने बिना वि.
(इन्द्रिय ) इन्द्रियों को विषयों में च. चारे जो चाहरा लिखमारा और मामलाना उनसे विषयों का ग्रहण करना मद के स्वरूप को ही न जाना ।
( अन्तर्विकार ) आधा, मृषा. जबर, पीआर्यमत लीला। हा प्रादि विकारों का होना, सुख,
दुःख, इच्छा, द्वेष और प्रपा ये सब मत्यार्थ प्रकाश के पनने से मालम | आत्माके लिङ्ग अर्थात् कर्म और पुनी। होता है कि स्वामी दयानंद सरस्वती स्वामीजीने अनेक ग्रन्ध पढे और स्याजी ने जीव के स्वरूप को उलटा म- न स्थान पर सत्यार्थ प्रकाणमें पूर्वापार्यो मक लिया और इम ही कारण से जीव | केवाक्य उद्धत भी किये परन्त समझमें के मुक्ति से लौटने और मुक्ति में भी उनकी कुछ भी न पाया। वर ग्याय मुख के अर्थ विचाते फिरनेका सिद्धान्त | और वैशेषिक शाखों में उपरोकमत्रों स्थापित कर दिया। देखो स्वामी जी को पढ़कर यह ही समझ गये कि मांस बम प्रकार लिखते हैं
| लेना, प्रांख को खोलना मदना, जहां