Book Title: Aryamatlila
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Tattva Prakashini Sabha

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Page 153
________________ शामलीला ॥ गा गा और फायदा कुछ भी न होया । देखिये स्वामी दयानन्द जी ने जो नमूना प्रार्थना का सत्यार्थप्रकाश के पृष्ठ १८४ पर दिया है और जिम का कुछ सारांश हम ने पूर्व इम लेख में दिया है और जिम से स्वामी जी ने इम बात के मिदु करने की कोशिश की है कि इस प्रकार प्रार्थना से ईश्वर के उत्तम गुण प्रार्थना करने वाले में पैदा होते हैं मही नमूनेमें स्वामी जी को इस प्रकार लिखना पड़ा है | । "छाप दुष्ट काम और दुष्टों पर क्रोधकारी हैं मुझको भी वैसा ही कीजिये हे रुद्र ! (दुष्टों को पापके दुःख स्वरूप फल को देके रुलाने वाले परमेवर) छाप हमारे छोटे बड़े जिन, गर्भ, पिता, और प्रिय, बंधुवर्ग तथा श रोरों का हनन करने के लिये प्रेरित मत कीजिये ऐसे मार्ग से हम को चलाइये जिस से हम श्राप के दंडनीय नहीं । ९४० नन्द जी के हृदय में व्याप चुका है इस ही कारण उन को ईश्वर में सगुण और निर्गुण दो प्रकार के भाव स्थापित क रने पड़े हैं और वह सत्यार्थप्रकाश के पृष्ठ १८३ पर लिखते हैं जिस २ राग द्वेषादि गुग्गा से पृथक मानकर परमेश्वर की स्तुति करना है वह निर्गुण स्तुति है । स्वामी दयानन्द की फिर इस ही बात को पृष्ठ १८६ पर लिखते हैं अर्थात् जिस २ दोष वा दुर्गुण से परमेश्वर और अपने को भी पृथक मान के परमेश्वर की प्रार्थना की जाती है वह विधि निषेध मुख्ख होने से सगुणा निर्गुण प्रार्थना । के वास्ते स्वामी जी पृष्ठ १८८ पर लिफिर निर्गुण प्रार्थनाको मुख्य बताने खते हैं देखिये प्यारे आर्य भाइयो ! श्रागई राग, द्वेष की झलक या नहीं ? साधन तो है राग, द्वं ष छोड़ने का और उल्टा राग, द्वेष पिचलने लगा-प्यारे भाइयो । फर्ता ईश्वर की भक्ति करने से कदाचित् भी संसार से विरक्तता नहीं हो सकती है बरण संसार के ही ब खेड़ों का ध्यान अवंगा और संसारके बखड़े ही ईश्वर के गुण होंगे जिनका ध्यान किया जावे- देखिये हमारे इम | वहां सर्वज्ञादि गुणों के साथ परमेश्वर की उपासना करनी सगुण और द्वेष, रूप, रस, गंध, स्पर्शादि गुणों से पृथक् मान प्रति सूक्ष्म प्रात्मा के भीस्थिति हो जाना निर्गुणोपासना क तर बाहर व्यापक परमेश्वर में दृढ़ हाती है । | प्यारे श्रार्य भाइयो ! जरा बिचार कीजिये कि यह कैसा भ्रम जाल है ? ईश्वर को कर्ता मानकर उस को संसार के अनेक बखेड़ों में फंसाना और जब जीव को अपने कल्याण के अर्थ राम द्वेष छोड़ने की आवश्यक्ता हो और ऐतराज का भय स्वयम् स्वामी दया | इस कार्य में अपना उत्साह और अ

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