Book Title: Aryamatlila
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Tattva Prakashini Sabha

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Page 186
________________ आमलीला ॥ . १८२ भ्यंतर विषय से इम को मरस्वतीजी ही जानते होंगे ! परन्तु योगदर्शन में तो प्राणायाम ही में जो योग और मुक्तिमाधन का एक बहुत छोटा दहै, वाह्य और प्राभ्यंतर दोनों विषयों को दिया । | अर्ध-योग के अंगों को क्रमशः अनु छान करने से अशुद्धि के तय होने पर ज्ञान का प्रकाश होता है. क्रमशः का भावार्थ यह है कि यम के पश्चात् नियम और नियम का पाचन होने पर आमन इन ही प्रकार खिलमिले. वार ग्रया करता है । अर्थात् यम भ से कम दर्जे में और मन से प्रथम है । इन के पालन विदून तो जाये चल ही नहीं मकता है । ततः क्षीयते प्रकाशावर सम् ॥ २ ॥ ५२ ॥ | तत्राहिमामत्यास्तेय ब्रह्मचर्या परिग्रहायनः ॥ २ ॥ ३० अर्थ-तिन में महंगा, सत्य, अस्तेय. ब्रह्मवर्ष और अपरिग्रह यह पांच यम हैं । - प्राणायाम मिद्धि के अनन्तर ज्ञान का आवरण मनक्षय हो जाता है अर्थात् ज्ञान का प्रकाश होने ल गता है । नोट- दयानन्द श्री ने मुक्ति मिट्टि | पर मुक्त जीवों के माथ फिर वह बिकार लगा दिये हैं जो प्राणायाम में छोड़े गये थे अर्थात् प्रयत्न चंवलता और विषय बामना इन हो कारण जो ज्ञान का आवरण प्राणायाम के पश्चात् दूर हुआ था वह दयानन्द शी ने मुक्त जीवों पर कर उनकी अपक्ष बना दिया ! cuit पाठक ! योगदर्शन के अनमार योगी के वास्ते सब से प्रथम काम पांच यम पालन करना है । यमनियमाऽऽनन नावायामप्रत्या जानिदेशकानन गयाऽनवािः मा वे भीमामा तम् ॥ २ ॥ ३१ अर्ध जाति देश, काल और समपकी मर्यादा से न करके मधेथा पालन कना महात्रत है अर्थात् उपरोक्त पां चोंयमों को बिना किसी मर्यादा के सबंधा पालन करना महाव्रत है और मर्यादा सहित पालन करना अणुव्रत है। अब प्यारे आर्य भाइयो । विचार हारधारणाध्यानसमाधयोष्टावंगानिने की बात है कि, परिग्रह कहते हैं सांसारिक वस्तुओं (प्रा) और उन की भिनाय को संभार का कोई भी अस्म्राब न रखना और न उम में समस्य रखना अपरिग्रह कहलाता है । अपरिग्रह महाव्रत धारण करने में किसी प्रकार की मर्यादा नहीं रह ॥ २ ॥ २९ अर्थ-यम, नियम, श्रामन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि योग के यह घाट अंग हैं । योगाङ्गानुष्टाना दशु द्विक्षयज्ञानदीप्ति विवेक रुपातेः ॥ २ ॥ २८ ॥

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