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मार्यमतलीला ॥
बनावै और जगद २ घमता न फिरतो करने को अभ्यास करते हैं। वह पत्थरके समान जड़ होजावे--पर- सतुदीर्घकाल नैरन्तर्य सत्कारासेविमत हमको आश्चर्य है कि सरस्वतीजी | तो दृढ़ भूमिः ॥ ०१ २०१४ ने इतना भी न विचारा कि यदि मुक्ति अर्थ -यह अभ्यान बहुत काल तक अवस्थामें इस प्रकार प्रवृत्ति करने और निरन्तर अर्थात् किमी समय किसी चित्त वृत्तियों में लगने और संसारी अवस्था में या किसी विन से त्याग न जीवों के समान वृत्तियों का रूप धा-करते हुवे अधिक मादरके साथ सेवन रम करने की जरूरत है तो मुक्ति करने से दृढ होता हैसाधन के वास्ते इन वृत्तियों के रोकने | प्यारे प्राये भाइयो ! योगशाचतो और अपने प्रात्मा में ही स्थिर होने | स प्रकार अत्यंत कमाय : की और योग धारण करने की क्या स्थिति और चित्त पत्तियों की के रोजरूरत है ? पोग धारण करना और कने में प्रानन्द बताता है स्वामी द. चित्त वृत्तियों को रोककर प्रारमा में यानन्द जी उनको पत्थर के समान ह| स्थिर होना कोई सहज बात नहीं है | भवस्था कई धा जो कुछ चाहे का.. इसके वास्ते योगी को बहुत कुछ अ- "निर्विचार देशारद्यध्यात्मप्रमादः | ग्यास और प्रयत्न करना पड़ता है प-॥१॥४७॥ रम्त जब मोक्ष में जाकर भी इन पृ- अर्थ-निर्विचार ममाधि के विशारद सियों में फंमना सौर माता स्थिरता भाव में अध्यात्मिक प्रमाद है-मर्यात् को छोड़ पर चंचल बनना है तो द-यात्मिक परम आनन्द प्राप्त होता है. यानन्द जी के कथनानुसार योग मा- पारे प्रार्य भाइयो ! योगदर्शन तो धन का सब उपाय व्यर्थ का ही कष्ट प्रारम्भ से अंत तक पिश वृत्तियों के ठहरता है
रोकने और प्रात्मा में स्थिर होने की देखिये योगदर्शन चित्त की वृत्तियों को मोक्ष मार्ग और धर्म का पाय को रोककर पागम्य होने के या यताना है. क्या पया उपाय बताता है
तन्त्र स्थिर सुग्नु मामगम् ॥२॥ ४६ "अभ्या7 घेराम्यायान्तनिरोधः" ॥! अर्थ-जिसमें स्थिर सुख हो वह प्रा.
मन कहामा है अर्थात् जिमकी महाय'अर्थ-बद गिरोध अर्थात् चित को मा से भली भांति बैठा जाय उसे प्रा. वतियों का रोकना अभ्यास मीर घरा- मन कहते हैं। वह पनामन, दरखाग्य से होता है
| सन, स्वस्तिक के नाम से विख्यात हैं वस्थितौयनोऽभ्यासः ॥ १॥ १३॥ यह मामन जब स्थिर कम्प रहित नार्थ-प्रात्मा में स्थिर होने में यत्र और योगी को मुख दायक होते हैं
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