Book Title: Aryamatlila
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Tattva Prakashini Sabha

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Page 183
________________ मार्यमतलीला॥ रोकना मुखप्राप्ति का उपाय है-और समझते हैं. उससे आपको विदित हो संभारके सर्व पदार्थों से चित्तको हटा | जायगा कि सरस्वतीजीकी शिक्षा विकर अपने ही प्रात्मा स्थिर और मुन धर्मनाके विरुद्ध और संसारमें शान्त होजामा परम मानन्द है और माने वाली है। याही मोक्षमा अपाय है-इम ही देखिये योगदर्शन इस प्रकार लिहेत मोक्ष में परम प्रानन्द है क्योंकि / खता है-- पहा ही शीवात्मा प्रकृति के मव घि. " योगश्चित्तत्तिनिरोधः - यो कारोंसे रहित हो कर पूर्व उप स्थिर | अ० १ २ २ और शस्त होता है-- अर्थ पित्तको वृत्तियों के निरोध - परन्त स्वामी दयानन्दजी इस सुख | र्थात् रोकने को योग करते हैं.-भावार्थ को नहीं मानते हैं धद म स्यिा और अपने ही प्रात्मा में स्थिता हो इस शान्ति दशाको पत्यरको मृत्ति के ममान / से बाहर किसी वस्तु की तरफ प्रकृति गाह बनजाना बताते हैं कम ही का-हो । रवा मुक्ति जीवोंके वास्ते भी 4 मा. "तदाद्रष्टुः स्वरूपेवस्थानम् ॥१॥३॥ वश्यक ममझने हैं कि वह अपनी मर्थ - उम ममय अर्थात् चित्तको छान मार कल्पित शरीर बनाकर ज-त्तियोंका निरोध होने पर जीवात्मा गह २ का प्रानन्द भागते हुए फिरत का सनेही स्वरूप में भवस्थान होताह है-स्वामी जी को मुक्तिका माधन क- "त्तिमारूप्यमितरत्र , ॥१॥४॥ रने वाले पोगियों का परिग्रह त्याग अर्थ मन्य अवस्था में अर्थात् जब और आत्मध्यान भी व्यय काही कश चित्तको मप्रवृत्तियां रोककर जीवाप्रतीत पहता है उनको यह कप सनित्मा आपही स्वरूप में मन नहीं हो. कर हो सकता है कि योगी संसारकी ताहै तब वह चित्तवातगांक रुपमा मर्य अस्त और शरीरका ममत्व छोड़ | धारणा कर लेता है-- दशा मर्व मंदे और कपड़े पहने का अखड़ा न रख मानी जो बाकी रहती ही है.. कर नग्न अवस्था धारगा का प्रात्म- नोट--नहषियोंने मुक्तिका माधन तो ध्याममें मग? बरण स्वामी जी तो यहां यह बताया कि चित की वृत्तियों को तक चाहते हैं और मत्याप्रकाशमें रोककर पनीही प्रात्मामें अवस्थित उपदेश देते हैं कि योगी को चांदी पी- होजाये--परन्त स्वामी जी कहते हैं कि ना धन दौलत भी रखनी चाहिये । मुक्ति प्राप्त होने पर यदि वात्मा परन्तु प्यारे मार्यभाइयो : अपने और अपने ही प्रारम में स्थिर रहे और . स्वामीजी मान्य ग्रन्य योगदर्शन नाना प्रकार चेष्टा न करे. इच्छा प्राप्त को देखिये जिसको श्राप मुक्ति सोपान न हो इच्छानुमार कल्पित शरीर न

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