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आर्यमतलीला ॥
तब योग के अंग कहे जाते हैं. उसे प्राणायाम कहते हैं अर्थात् प्रा.
नोट-स्वामी दयानन्द जी लोप्रा- मन स्थिर होकर श्वाप उचाम के रुकमन को जड़ पत्थर के समान ही हो-/ने क प्राणायाम कहते हैं। जाना समझते होंगे।
__ मीट-दयानन्द जी मुक्त जीवों पर - प्रयत्नशैचिस्यामन्तममापित्तिभ्याम् तो आप की दया होगई जो उनको ॥२॥४७
स्थिरता से छडाकर इस प्रयत्न में लगा अर्थ-प्रयल के शिथिल होने और प्र- | दिया या संकल्पो शरीर बनाकर मन्त ममापिति से प्रामम की मिटि जगह जगह का प्रानन्द लेते फिरा होती है अर्थात् प्रामन निश्च न होते करें परन्तु योगियों पर भी तो कुछ हैं और चित्त की चंच-नसा उप होदया करनी चाहिये थी ? देखो मह. जाती है
पिं पातलिने तो योग दर्शन में सन नोट-दयानन्द मरस्वती जी तो मा भाम रोक कर मनमुन टी पस्था बात को कभी न मानते होंगे ? क्योंकि की मूर्ति बना दिया हमारे प्रार्यभाई प्रयत्न तो यह जीव का लिंग मताते हैं प्राणायाम के बहुत शौकीन हैं इनको चीर इस ही देत गोश में भी जीयका मी कोई ऐमा प्रयत्न बना दिया होप्रयत्न मिद्ध करते हैं स्वामी जी नो ता जिम को करते हुये भी प्राणायाम अनियों मे हम ही बात कष्ट हैंजिनिटु होता है और चंचलता भी मेनी मुक्तिजी का प्रयत्न रहित एक यनी रहै ? स्थान में स्थित ज्ञान स्थप श्रानन्द में | बाय : यन्तर विषपाक्षेपी चतुर्थः ॥२॥५१ मग्न रहना बताते हैं और कम ख- अर्थ-जिममें बाह्य श्रोर प्राभ्यंतर सहन में सत्यार्यप्रकाश में कई कागज बिषयों का परित्याग हो यह चौथा काले करते हैं-प्रापाधापी मनुष्य अर्थात प्राणायाम है-तीन प्रकार के प्राणायाम योगी को वास्ते इस प्रकार पत्थर बन पाने वर्णन करके इस सत्र में चौथा जाने को तो वाफघ पमन्द भरेंगे? बर्णन किया है।
परम्त स्वामी जी जो चाहैं मधील मोट-दपानन्द जी तो मुक्तजीव को उड़ाधे 'योगशान को तो ऐसी ही भी विषप रहित नहीं बनाना चा. शिक्षा है
हते हैं हम ही हेतु इच्छानुसार कतस्मिन् मतिश्चामानामयोर्गतिवि- सिपत शरीर बनाकर घमण करना च्छेदः प्रासायामः २॥४.
और अन्य मुक्त जीवों से मिलना ज. अर्थ-भासन स्थिा होने पर कोश्वामो लना प्रावश्यक बताते हैं। इस प्रकार वाम की गति का अवरोध होता है । की क्रिया वाह्य विषय से हो वा प्रा.
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