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प्रार्थमसलीला ॥
जीवों को प्रभिनिवेश करनेश में भी फंसा दिया इस ही प्रकार स्वामी जी के क धनानुसार स्मिता और द्वेषभी मुक्त जीयों में घटते हैं अर्थात् मुक्त जीव पांचों प्रकार के क्लेशों में बना है। नहीं मालूग सरस्वती जी को मुक्त जीवों से क्यों इतना द्वेष हुआ है कि | उन को सर्व प्रकार के क़शों में फंसा | तासे कहा है-ना चाहते हैं ? परन्तु मुक जीवों पर
तो स्वामी जी का कुछ बश नहीं घणेः कैवरूपम् ॥ २ ॥ २५ ॥
लेगा। हां, करुणा तो उन संमारी म
सहेतुरविद्या ॥ २ ॥ २४ अर्थ-संयोग का हेतु प्रविद्या है। तय हो तो स्वामी जी मे सुक्तशीच को अत्पक्ष बनाया है परन्तु प्यारे प्रायें भाइयो! स्वामी जी कुछ ही कहैं प्राप जरा योग दर्शन की शिक्षा पर ध्यान दीजिये देखिये कि स्पष्ट
सदभावात्मयोगाभावोहानम् तट्टू
अर्थ-उसके अर्थात् प्रविद्या के - भाव से संयोग का प्रभाव होता है और बही दृष्टाका कैवल्य अर्थात् मो.
है विना सर्वज्ञता प्राप्त होनेके और सर्व पदार्थों मे प्रवृत्ति को हटाकर ग्रा त्मस्थ होनेके बिदून मुक्ति ही नहीं हो सकती है । भावार्थ मत्यार्थप्रकाश में स्वामी जी ने मुक्ति का बर्तन नहीं किया है वरण मुक्ति को हंमी का स्थान बना दिया है ।
आर्यमतलीला ॥
rai पर प्रानी चाहिये जो दयानंद जी की शिक्षा पाकर मुक्ति साधन से अरुचिकर लेंगे और संसार के हो बढ़ाने में लगे रहेंगे
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प्यारे श्रार्य भाइयो | योग दर्शनको पढ़ो और उस पर चलो जिसमें ऐमा लिखा है, सत्यार्थप्रकाश के भरोसे पर | क्यों अपना जीवन खराब करते हो - दृष्टदृश्ययोः संयोगो हेय हेतुः || २ || ११ अर्थ- देखनेवाला और देखने योग्य वस्तु इनका जो संयोग है वह स्याज्य का मूल है अर्थात् मोक्ष साधनमें त्याग ही एक उपादेय है और त्याग का मुरूप तत्व यह है कि शेष वा दृश्य
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संभार तो यह ही देखने में जाता है कि तृष्प श्रान् को दुःख है और सघोत देखने योग सर्व वस्तुओं का मोन्तोषीको सुख - एक महाराजाको पात संयोग देखने वाला करता है बह त्याग खगडका राज्य मिलने से उतना सुख दिया जायेप्राप्त नहीं होता है जितना जंगल में परन्तु स्वामी जी इस feng क | पड़े हुए एक योगीको सुख है । धर्म सुहते हैं कि मुरु जीव हम हो संयोग | खप्राप्तिका मार्ग है हम हो हेतु धर्म मिलने के वास्ते संदरूपी शरीर बनाका सून त्याग है--इन्द्रियोंको विषय ता है और जगह २ घमता फिरता है। भोगोंसे हटाना चित्त की वृत्तियों को