________________
-
-
मार्यमतलीला ॥ कि उसके मुकाबले में बंद बचन भी प्र.। " मुक्तिरन्तराय श्वस्तेनं परः ॥, माण नहीं तो साफ माफ़ तौर पर वेदों स० ० ६ सू० २०
और दर्शन शाखोंसे इनकार करके के अर्थ-मुक्ति कोई पर पदार्थ नहीं है। वल सत्यार्थप्रकाश पर ही भरोसा क- जिसकी प्राप्तिमे मुक्ति होती हो और रलो-परन्तु मरपार्यप्रकाश में तो स्वामी | प्राप्त होनेके पश्चात् किसी समय किसी जीने अपने कपोल कल्पित मिद्धान्त कारणसे उस पदार्थ के दिनजानेसे मुक्ति लिखकर यह भी लिखदिया है कि वेद | न रहती हो बरण मुक्ति तो अन्तराय | और षटदर्शनोंको ही मानना चाहि के नाश होनेका नाम है अर्थात् जीब ये और यह भी बहका दिया है कि ] को निज शक्ति अर्थात् केवल जान पर स्वामीजी के कथित मिद्धान्त धेद और
| जो अनादि कामासे अबिधेकमा पटल दर्शनोंके अनकल ही है--इस कारण | पहाहुआ था उम पटल के दूर होने हमारे भोले भार्य माई भमजाल में फंस | और निज शक्तिके प्रकट होनेका नाम । गये हैं--
मुक्ति है इस हेतु जन जीव को निम देखिये सांरूपदर्शनमें मुक्तिसे फिर | शक्ति प्राप्त होगई और उमका जान लौटनेके विषयमें कैसी रपष्टताके माथ प्रकाश होगया तब कौन उसको बविरोध किया है
न्धनमें फंसा सकता है ? भावार्थ फिर "न मक्तस्य पमबन्ध योगोऽप्यना | बंध नहीं हो सकता है.. त्ति श्रुतेः” ॥ सां० प्र०६ सू०१७ । प्यारे आर्य भायो ! सांख्यदर्शन में | अर्थ- मुक्त पुरुषका फिर दोबारा बंध इस प्रकार स्पष्ट मिद्ध करने पर भी कि. नहीं हो सकता है क्योंकि अतिमें क- मुक्तिसे फिर जीव लौट नहीं सकता
मतिम जीवनहीली. है, स्वामीजीने मुक्तिसे जीवके लौटने टता है
का मिद्धान्त मत्यार्थप्रकाशमें स्थापित __ "अपुरुषार्यत्व मन्यथा , ॥ सां० ॥ किया है और साथ ही इसके यह भी ०६॥ सू०१८
लिख दिया है कि दर्शनशास्त्र सच्चे और अर्थ-यदि जीव मुक्तिमे फिर बंधन मानने योग्य है-ऐमी पूर्वापर विरोध में जा सकता हो तो पुरुषार्थ अर्थात् से भरीहुई सत्याप्रकाश नामकी प. मुक्तिका साधन ही व्यर्थ होजावे- स्तक क्या भोले मनुष्योंको भमजाल में “विशेषापतितमयोः, ॥ मा0 0 कंसाने वाली नहीं है? और क्या पर
विद्वान् पुरुषों के मानने योग्य होस अर्थ--यदि जीव मुक्तिसे भी लौटकर कती है? कदाचित नहीं-- फिर बंधममें फंसता है तो मुक्ति और सत्यार्थप्रकाश में तो स्वामी जी को बन्धनमें फरक हो पा रहा? मुक्तिसे नीबोंके लौटनेका इतना पक्ष