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मार्यमतलीमा ॥
१७१ को भी कम ही प्रकार अधिष्ठासापना | अन्य का भी वचन प्रमाण हो तो अंहोता है अर्थात उन की प्रशंसा उपा-धाधुंध फैल जाये क्योंकि केवल मानके मना भी की जाती है।
| बिटून जो मन में प्रायै सो कहै. मिद्धम पश्खोदत्वादाक्यार्योपदेशः ॥२० चक्रभ्रममा दतशीरः ॥ सां ॥ ० अ. १॥ मू०६८
मिद्धरूपों के यथार्थ जाना होने से प्रय-जिम प्रकार कुम्हार अपने चाक सनका वाक्यार्य ही उपदेश है अर्थात् को लाठी मे चनाता है परंतु लाठी
के निकाल लेने और कुम्हार के अलग जीवन्मुक्तश्च ॥ मां० ॥ ३॥ सूर दाने के पश्चात् भी चक्र चलना र. जीवन मुक भी अधांत केवल पान
हता है इम ही प्रकार जीव प्राधिवेक प्राप्त होने पर जय तक शरीर बना
| से बंधन में पड़ा था और संचार के रहता है तब तक की अवस्था को जी
| चक्र में फंमा हुपा था अब अधिवेक धन मुक्त कहते हैं
| दृा हो गया और केवल ज्ञान की प्राउपदेश्योपदेष्टत्वात नहि यदिः ॥ मांप्ति हो गई परंता अविवेकने जो मसार म.३॥ सू. 6
| चक्र घनाया था वह अबिवेक के दूर अर्थ-उपदेश के योग्य को उपदेश क-होने पर अभी तक बंद नहीं हुआ रने वाले के भाव में 1को मिद्धि है। इनकार देह का संकार बाकी है अर्थात् उपदेश करने का अधिकार जब गर्यकार शांत हो जावंगे तय जीवन मुक्तता ही है क्योंकि उमदेव भोल: जये और जीव सिद्ध पहले केवल ज्ञान नहीं जो म पदा-पद का प्रप्त हो जायगापों का जानने दागा ही श्री केशा | मारले शात् तरिसद्धिः ॥ सां० शान होने पर देह त्याग के पश्चात ३ ॥ ० ८३ उपदेश ही नहीं नकता क्योंकि उपद- अर्थक मन्कार का लेश वाकी रह श बचन द्वारा ही हो सकता है और गया रेम ही कारण जीवन्मुक्त होने देह होने की ही अनम्या में वचन उपा भी शरीर चाकी है. त्पन्न होता है इस कारण उपदेश पाना |
पार्यमत लोला जीवन्मुक्त हो हो मकता हैअतिश्च ॥ मा० ॥ ३ ॥ सू: ८०
__ योग दर्शन और मुक्ति।। अर्थ -अनि में भी इसका प्रमाण है. इनरयान्धपरम्परा ॥ मा० ॥ ३॥ पदर्शनके नानने वाले प्यारे आर्य
| भयो । यद्य स्वामी दयानन्द ने अर्थ-यदि जीवनमरत की ही उप को वहाया है कि मत्य थेप्रकाश देश का अधिकार नही और किमी में जो मिदान्त उन्होंने स्थापित किये
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