Book Title: Aryamatlila
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Tattva Prakashini Sabha

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Page 177
________________ - मार्यमतलीला ॥ (४) दर्शनकारों के मतके अनुमार स्वामीजी अपरिग्रही और वैगगी यो. जीव स्वभाव से सर्वत्र है परन्तु प्रकृति | गांकी नाप मन्द करते हैं बरका यहांतक संयोगसे उसके ज्ञान पर प्रावरण पहा शिक्षा देते हैं कि योगीको यहां तक हमा है जिससे यह प्रकाश होकर प्र. परिग्रही होना चाहिये कि स्वर्स प्रा. विधकी रहा है और हमके अधिक दिक भी अपने पाम रक्ख ग़ज़ स्वा. के कारण संसार में फंसकर अनेक दुःख मीजीकी नियत इममे यह मालम पद्धती है कि धर्मके मर्व माधन दूर होकर मनुइस भावरम के दूर होने और मर्षता | ष्योंकी प्रवृत्ति समागमें द्रढ हो॥ प्राप्त होने की का नाम मोक्ष है-पर-1 प्यारे आर्य भारयो : प्राज हम योग न्तु स्वामी दयानन्द जी भिखाते हैं कि दर्शनका कछ सारांश इम लेख में आप जीव स्वभाव से ही अल्पज है इम हेतु | को दिखाते हैं जिसमे स्वामी जी का विमाक्षमें भी अल्पज रहना है अथात् पृ. लाया हा भ्रमजाल दूर होकर हमारे ण चिवक मोक्ष में प्राप्त नहीं होता है | भाइयों की चि सत्यधर्मकी भोर मग रामही कारण संकरूपी शरीर बनाकर देखिये योगशाख में मुक्तिका स्वरूप संमारी जीवों की तरह प्रानन्दकी खोज इमप्रकार गिखा हैमें भटकता फिरता है। यह शिक्षा भी | " पुरुषार्थ न्यानां गणानां प्रति. मनष्यको मुक्तिके माधन में निरुत्माही प्रमवः कैवल्यं स्वम्पप्रतिष्ठा वाचिति बनाने वाली है। शक्तिरिति यो. प्र. ४ सू०-३४ (५) योगदर्शन में मुक्तिका उपाय | अर्थ-पुरुषार्थ शून्य गुणांका फिर स्थिर चित्त होकर संसारको सव य-पैदा न होना कंबल्य है वा स्वरूप प्रति से अपने ध्यान को हटाकर अपनी निष्ठा है वा चैतन्यशक्ति है- अर्थात् मत की प्रास्मा में मग्न होना बताया है-- | रज और तम यह तीन प्रकार के प्रकृ. इमही से मर्व बन्धन और मवं श्राव- तिके गण जब जीवको किमी प्रकारका रादा होने हैं और इसही से जान भी फन्न देना छोड़देते हैं परुषार्थ र. प्रकट होता है और ज्ञानम्वरूप प्रा- हित होजाते आगामीको यह गण पैदा स्मामें ही स्थिर रहना मोक्षका स्वरूप होजाने बंद हो जाते हैं। भावार्थ-जब मई और भक्तिका परम आनन्द है परन्तु प्रकार के कर्मा और संस्कारोंकी निर्जरा दयानन्द सरस्वती जी एमी अवस्थाको और संबर होजाता है तब जीव कैवल्य हमी उड़ाते हैं और इसको जड़वत हो | अर्थात् सानिम और शाद रहमाता है आना बताते हैं - स्वामीजीकी तो सं- और अपने ही स्वरूप में प्रतिष्ठित हो सारी जीवांकी ताद अनेक घेष्टा और जाता है. अपने स्वरूपसे भिन्न जगत् क्रिया करना ही पसन्द है इमही हेतु की अन्य किसी वस्तु की तरफ जीवकी

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