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मार्यमतलीला ॥ उपादान हो चाहे निमित्त परन्तु पाप पानी चाहिये थी कि सांख्यदर्शनके । के कथनानमार बस्तु तो है और पाप कर्ता कपिलाचार्य ईश्वरवादी थे-दे. उस को अनादि मानते हैं इस कारण | खिये सारूप कमी सफाई के साथ ई. सप्टिका नहीं परन्तु अपना तो उपा-वरसे इन्कार करता है। दान है.-या इस स्थान पर आप यह ईश्वरासिद्धः”। मां०॥०॥ १॥स०६२ मानलेंगे कि जो उपादान सष्टि का है। अर्थ- इस कारणसे कि ईश्वरका होना बही परमेश्वरका है? कछ हो किमी सिद्ध नहीं है। न किमी प्रमाणने ही मिद्ध होगा तब "मुक्तपदयोरन्यतराभावात्रतत्सिद्विः ही मानाजावगा अन्यथा कर नाना मां० ॥ १॥ सू? ९३ ॥ जा सकता है-कपिन्नाचार्य कहते हैं| अर्थ- चैतन्य दोही प्रकारका है मुक्त कि वह किमी भी प्रमाणामे मिटु नही और बट इम मे अन्य कोई चतन्य इम कारण प्रवस्तु है--और मांख्य द- नहीं है बम हेतु ईश्वरको सिद्धि नहीं है। र्शनके अध्याय ५ के मूत्र ८ और ' के
| " उभयथाप्यमत्रत्वम् , ॥ मां ॥ अर्थ में जो सरस्वती जीन यह शब्द अ
| अ० १॥ सू० ८४ पने कपोलकल्पित लिखमारे हैं किन्तु निमित्त कारण है,, यह उक्त सत्र में तो
__ अर्थ दोनों प्रकार से ईश्वरका कर्तृत्व किमी शब्द मे निकलते नहीं। यदि ममिद्ध नहीं होता अर्थात् यदि वह मुक्त रस्वती जी का कोई चना बतादे कि है तो उसका विशेष क्या काम होमअमुक रीतिमे यह अर्थ निकलते हैं ता कता है ? जसे अन्य मुक्त जीव ऐसा ही हम उनके बहुत अनुग्रहीत हो। वह और यदि वह घद्ध है तो अन्य
इम ही प्रकार उपनिषद् का वाक्य | ममारी वा के ममान है--दोनों प्र. लिखकर उनके अर्थ में जो यह लिखा है | वम्याओं में ऐमा कोई कार्य नहीं जिसके
" और परुष अपरिणामी होने में | वास्त ईश्वरको स्थापित किया जाये। वह प्रस्थान्तर होकर इमरे रूप में कभी आर्यभाइयो ! यदि आपका भी विनहीं प्राप्त होता मदा कूट स्य निर्विचार को काममं लावगे और सारूपदकार रहता, यह कौनसे शब्दों को अर्थ को पढ़ेंगे तो आपको मालम होगा है? प्रतिमें तो ऐमा कोई शब्द है कि सांख्यने इंश्वरवादियोंका मखोल नहीं जिसका यह प्रथ कि पाजावे. हातक उड़ाया और प्रधान अर्थात् प्रकृयदि सरस्वतीजीको सरस्वतीका यही तिको ही ईश्वर कर दिखाया है यथाः-- बर हो कि वह अर्थ करते ममप शब्दों सहिमववित् सर्वकर्ता" ॥ सां०॥ से भिम भी जो चाहैं लिखदिया करें | अ० ३ सू० ५६ तो इसका कुछ कहना ही नहीं है। प्रथ--निश्वयमे वहही मब क जा. दयानन्दजीको यह लिखने में लज्जः | नने वाला और सर्व कर्ता है।
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