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मार्यमतलीला ।
सां० ॥ ३॥ सू०६५
लगा सकता? अर्थ-दोनों वा एक का उदासीन | ध्यानं निर्विषयं ममः ॥ सां० ० होना मोक्षा है-अर्थात् जीव और प्रकृ. ६ सू० २५ ति दोनों का वा इन दोनों में से एक अर्थ-मनको बिषय से रहित करने | का उदासीन हो जाना अर्थात् दोनों का नाम ध्यान हैका सम्बन्ध छूट जाना ही मोक्ष, रागोपहसिानम् ॥ सां० ॥ ० कहलाता है.
पाठक गणो। जरा मुक्ति के साधन | अर्थ-राग के माश का जो हेतु है। पर ही ध्यान दो कि मांरूप में क्या | यह ध्यान है। लिखा है ? म ही से विदिन हो। वृत्ति निरोधात् तस्मिद्धिः ॥ सां० मावैगा कि मुक्तिजीव स्थिर रहते हैं | ०३॥ स. ३१ वा अन्य मुक्तिजीवों से मुलाकात क- वृप्ति के निरोप से ध्यान की सिद्धि रते फिरते रहते हैं..
होती है। तत्वाभ्यामाने तिनेतीति त्यागाद्विये प्यारे पाठको ! मांख्य ने मुक्ति को फसिद्धिः ॥ मां ॥ ३ ॥ मू. १५ प्राप्त होना कृतकृत्य होना मिटु किया
पर्य-यह प्रात्मा नहीं यह आत्मा है अर्थात् जिस के पश्चात् कुछ भी कनहीं है म त्याग रूप तत्व प्रस्चाम मे रना बाकी न रहे । परन्तु अफमोम विवेक की मिति -प्रथांत जीय जिम है कि स्वामी दयानन्द जी मंमारी को अपने में पथ समझना जावे उजीवों की तरह मुक्त जीवों को भी को त्याग करता भाव इस कार त्याग ! कानों में फंभाते और प्रानन्द प्राप्ति करते करते मर्व का त्याग ही जागा को भटक में कल्पित शरीर बनाकर और केवल अपने ही आत्मा का वि. जगतार में मक्ति जीवों का भमण कर. चार रह जावेगा यह चिंचकर इभ ना भत्याकाण में अर्शन करते हैं.. मे मुक्ति है। देश में सात्मा नहीं ! बिकाशिः शेप दःनिवृत्ती कृतकस्री पुत्रादिश जगत् मत्र जीव मेरे त्यता नलागतात् ॥ मां ॥३मः८४ अत्मा से भिन्न हैं और यही प्रकार
..... अर्धयिक ने ममस्त दःख निवृत्त जगत् के मर्य पदार्थ भिन्न हैं इस प्र. होने पर कृत कृत्यता है दूमरे से नहीं कार प्रात्मबोध हो जाता है.. अर्थात् पृया जान होने दी से दःख की
( नोट ) परन्तु क्या बोध प्राप्त होने परी परी नियति होती है और अब के पश्चात् प्रथात् मुक्ति प्राप्त करके प्रयासमान हो गया नब कुछ करना फिर अन्य वस्तु प्रधान मुक्ति मीयां वा याकी नहीं रक्षा अर्थात कृतकृत्य हो अगत् की अन्य बस्तु की और चित्त माना है