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भार्यमतलीला ॥
सौदामीन्यं चेति ॥मां॥ २१ सू १६३ / उम में गति असम्भव है-क्रिया और अर्थ--और निश्चय नप से बह सदा | गति प्रकृतिका धर्म है गति का वर्णन उदासीन भी है
| इस से पूर्व के सूत्र में है। स्वामी दयानन्द जी की जितनी बाते| "न कर्मयाप्य तदर्मत्वात्" [सां०॥
वह मन पद्धत ही हैं वह मत्या ०१॥स० ५२ प्रकाश में लिखते हैं कि, मुक्ति प्राप्त अर्थ-कर्ममे भी पुरुषका बंधन नहीं है करने के पश्चात् मुक्ति जीव अपनी इ
क्योंकि कर्म जीवका धर्म नहीं कला के अनु पार आनन्द भोगता हुआ | घमता फिरता रहता है, मुक्ति जीवां है वरण देहका धर्म है ॥ से मेल मुलाकात करता है और जगत् | "उपरागात्कर्तृत्वं चित्सानिध्यात, के मर्व पदार्थों का प्रानन्द लेता फि-॥ सां० ॥ ०१॥ स. १६४ रता रहता है. इसके विरुद्ध जनियों ने अर्थ -जीव में जो कांपना है वह जो मक्तिव के एक स्थान में अपनी | चित्त अर्थात् मन के समर्ग से उपराग सात्मा में न्यिा आर अपन ज्ञान स्व. पेटा होने रूप में मग्न रहना लिखा है उम का
। “असंगोऽयं पुरुष इति, सां भ०१/ मात्यार्थप्रकाश में भय का उड़ाया है--
म० १५॥ देखिये वम विषसे स्वामी दयानंद
| "अर्थ -पुरुष मंग रक्षित है अर्थात् अ-1 जी के मान्य ग्रन्थ मांख्यदशन से क्या पने स्वभाव में स्थित स्वच्छ और निसिद्ध होता है-- निर्गसादि प्रति विरोधश्चेति । मां
मा पारे आर्य भाइयो ! जय मुक्तजीव १० ११.५४॥
अर्थ-माक्षी चेता के वली निगमा श्च इ-1 के प्रकृति मे बना शरीर ही नहीं है त्यादिक अतियां जीव को निर्माण | बरगा मुक्ति दशा में वह असंग निर्मल कहा है यदि कोई क्रिया वा कर्म जीव और स्वच्छ है और क्रिया प्रकृति का में माने जावेंगतो ऋतिमे विरोध होगा- धर्म है अर्थात् जी क्रिया संरी जीव निर्गगत्वमात्मनोगत्यादिश्रुतेः सा करता है वह मत, रज, तम सुन तीन
| गुगों में से किसी एक गुगा के आश्रित ॥ ६॥ १० १०॥
अर्थ-अनि में जीव को अनंग वर्शन मारता है और यह तीनों गा प्रकृति किया है इम कार ना जीव गिगा है--उत्पन्न होते हैं मुक्तिदशामें प्रकृति
निष्क्रियस्य तदसंभवात् ॥ सां॥ में अन्नग होकर जीव निगा हो जाअ० १॥ म०४
ता है तब उमके चलना किग्गा मा. अर्थ-क्रिया रहित को वह मंभव दिन काग कसे बन सकते हैं। हीने से अर्थात् जोत्र क्रिया रहित है "योरेकतरस्य वौदासीन्धमपवर्गः,
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