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प्रार्यमतलीला ॥
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अत्यन्त दुःख निवृत्या कृतकृत्यता । अवस्था ही नहीं हो सकता है परन्तु ॥सां ॥ ६॥ ५॥
सांख्य दर्शन में ऊपर नीचे सब कुछ अर्थ-दःख की अत्यंत निवृत्ति से कृत
माना गया है:कृत्यता होती है. अर्थात् जीव कृत कृत्य |
"देवादिप्रभेदाः, ॥ सां० ॥ प्र.३॥ तब ही होता है जब दुःख की घि
अर्थ मष्टि यह है जिम में देव आदि एकल निवृत्ति हो जावे किमी प्रकार भेद हैं अर्थात् देव-नारकी मनुष्य का भी दुःख न रहे..
और तियंचयथा दुःखारनेगः पुरुषस्य न तथा “अई सत्व बिशाला, ॥ सां ॥ प्र. मुखादभिन्माषः ॥ मा० ॥ प्र० ६.६ ३ ॥ सू०४८
अर्थ--जीवको जैमा दुःख से द्वेष हो- अर्थ-मष्टि के ऊपर के विभाग में सता है ऐसी सुख की अभिलाषा नहीं है। त्वगगा अधिक है अर्थात् ऊपर के भाग ___ यद्वातद्वातदुछित्तिः पुरुषार्थ त दु- में सतोगुणी जीव रहते हैं भावार्थ :वित्तिः पुरुषार्थः" ॥मां० प्र०६॥सू०१० पर स्वर्ग है जहां देव रहते हैं।
भर्थ-जिम किमी निमिएसे ही उम| “नमो विशाला मूलतः , ॥ सां० ॥ का नाश पुरुषार्थ है अर्थात जीव और | अ० २॥ स०४० प्रकृति का मम्बंध को प्रनादि कान | अर्थ सष्टि के नीचे के विभाग में तसे हो रहा है वह चाहे कर्म निमित्त | मोगुण अधिक है अर्थात् नीचे के भाग में हो चाहे विधेफ से हो या यह में तमोगुणी जीव रहते हैं भावार्थ सम्बंध किसी शान्य कारण से हो पर-नीचे नरक है जहां नारकी रहते हैं। नतु इस सम्बंध का नाश करना ही मध्ये रजो बिशाला ॥ सां० ॥ ० पुरुषार्थ है क्योंकि इस संबंध ही से |३ ॥ सू० ५० दःख है और इस संबंध के नाश ही अर्थ--मष्टि के मध्य में रजोगण प्र. से जीय की शक्ति प्रकट होती है- |धिक है-भावार्थ मध्य में मनष्य और
स्वामीदयानन्द जी तो ऐमी प्रामा- | तिर्यच रहते हैं-- दी में आए हैं कि स्वर्ग और नरक से आगे लेख में हम दिखलायेंगे भी इन्कार कर दिया है बरगा ऐमी कि मांख्य दर्शन में कर्ता ईश्वर का अंग्रेजियत में पाए हैं कि जगत् में भनी भाति खंडन किया है और मुऊपर नीचे की अवस्था को ही प्राप क्ति जीवों की ही पूजा उपासना और नहीं मानते बरस जैनियोंका जो यह जीवन मुक्त अर्थात् केवल ज्ञान प्राप्त सिद्धांत है कि मोक्ष स्थान लोक शि-होने के पश्चात् जब तक शरीर रहै खर पर है इस बात की हंसी इम ही | उन का ही उपदेश मानने के योग्य है हेतु से उड़ाई है कि ऊपर नीचे कोई | और किसी का नहीं।