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मार्यमतलीला ॥ वह अन्यायी हो जाये इस कारण ई- अर्थ-मात्मा स्वभाव से मुक्त है इस श्वर अनित्य ही मुक्ति देता है। हेतु मुक्ति प्राप्त होना बंध की निघु
यद्यपि यह बात सत्र जानते हैं कि त्ति होना अर्थात् दूर होना है समान मुक्ति कर्मों का फल नहीं हो सकती| होना नहीं हैबरण कर्मों के क्षय होने का नाम मुक्ति भावार्थ--बंध का नाश होकर है परन्तु अपने आर्य भाइयों को म- निज शक्ति का प्रकट होना मुक्ति है मझाने और सत्य मार्ग पर लाने के फिमी वस्तु का प्राप्त होना या किसी वास्ते हम उन के परममान्य ग्रन्थ परशक्ति का उत्पन्न होना मुक्ति नहीं सांख्य दर्शन से ही सरस्वती जी की इस हेतु मुक्ति किसी प्रकार भी
कर्मों का फल नहीं हो सकती है। अविद्या को सिद्ध करते हैं और उनके |
| "न स्वभावतो बद्धस्य मोक्षमाधनो माया जाल से अपने भाईयों को ब-| चाने की कोशिश करते हैं:- पदश विधिः' ॥मांक ०१ स.
., अर्थ-बंध में रहना जीव का स्वभाव ____ "न कर्मण उपादानत्यायोगात्" |
नहीं है क्योंकि यदि ऐमा होवे तो मोक्ष सां० १० १ ० ८१
| साधन का उपदेश ही व्यर्थ ठहरै। अर्थ-कर्ममे मुक्ति नहीं है क्योंकि कर्म |
नाशश्योपदेशयिधिरूपदिष्टयनप- | उसका उपादान होने योग्य नहीं है।
देशः । सा० ॥ ० १॥ सूर काम्येऽकाम्येऽपि माध्यत्या विशेषा- |
अर्य--जो अशक्य है ( नहीं हो मफत् । सां० प्र० १ ० ८५॥ | ता ) उमका उपदेश नहीं दिया जा
अर्थ -चाहे कर्म निष्काम हो चाहे | ता क्योंकि उपदेश दिये जाने पर भी सकान हो परन्तु कर्म मे मुक्ति नहीं न दिये जाने की बराबर है अर्थात् है क्योंकि दोनों प्रकार के कर्म के मा- किमी को उसका उपदेश नहीं होता। धन में ममानता है।
स्वभावस्पानपायित्वादननुष्ठान लआर्य धर्म के मुख्य प्रचारक म्वामी क्षणामप्रामाण्यम्, मां०॥ ० ॥१॥सर दर्शनानन्द ने इम सूत्र की पुष्टिमें यह अर्थ-स्वाभाविक गुग्ण अधिनाशी होअति भी लिखी है।
|ते हैं इस कारण अतिमें जो मोह सा "न कर्मशा न प्रजया न धने- धन का उपदेश है वह अप्रमाण हो न त्यागे न मनत्यमानशुः" जायेगा। शार्यात् न तो कर्ममे मुक्ति होती है।
नित्य मुक्तत्वम्-सां ॥१०१ । सू० १६९ न प्रजासे न धन से
अर्थ-स्वाभाव से जीव नित्य मुक्तही निजमुक्तस्प बंधध्वंसमात्रं परं महै मर्यात् निश्चय नय से वह सदा मु. समानस्वम्" सां० ० १ ० ८६॥ कही है।