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मार्यमतलीला ॥ प्रकार भी मुक्त जीवको बंधनमें नहीं। में रत होने के कारस भष्ट होरहाई
सामती है क्योंकि जिस निमित्तसे | और संसार भ्रमण कर रहा हूं तब फिप्रकृति जीवोंको बन्धनमें फंसा सक्ती र दोबारा वह कैसे प्रकृतिसे रत होहै वह निमित्त ही मुक्तजीवमें नहीं सक्ता है ? एक बार मुक्त हुमा जीव होता है। भावार्थ:-जीव अविवेक से सदा ही के वास्ते मुक्त रहेगा प्रकृति बंधनमें पड़ता है वह मुक्तजीवमें रह- को तो उनके पास भी फटकनेका हौंस. ता ही नहीं फिर मुक्त जीव कैसे बंध-ला नहीं होगा। नमें पड सक्ता है?
| बिबिक्तबोधात्सष्टि निवृत्तिःप्रधानस्य "नर्तकीवत्प्रवृत्तस्यापिनिवृत्तिवारि- सूदवत्पाके” ॥ सा० ॥ ०३ ॥ सू०६३ ॥ तार्यात्, ॥ मां ॥ अ. ३॥ स०६९ ॥ | अर्थ--जोधमें ज्ञान प्राप्त होजाने पर
अर्थ--नाचनेवाली के समान धरिता- प्रधान अर्थात् प्रकृतिको सष्टि निवृत्ति होने में प्रवत्तकी भी निवृत्ति होती होजाती है जैसे रसोइया रसोई बन है अर्थात् जिस प्रकार नाचने वाली जाने पर अलग होजाता है फिर उसे उमही समय तक नाचती है जब तक कुछ करना बाकी नहीं रहता है। उसका नाच देखने वाला देखना चाह | महाराज कपिलाचार्य ऐपी दशाको ता है । इमही प्रकार प्रकृति तसही स- मुक्ति ही नहीं मानते हैं नहांसे फिर मय तक जीवके साथ काम करके प्रवृत्ति लौटना हो वहतो मुक्त उसहीको माहोती है जब तक जीव सममें रत र-नते हैं जो सदाके वास्ते हो और मुक्ति इता है अर्थात् उसको अविवेक रहना| के वास्ते पुरुषार्थ करनेका हेतुही उन्हों। है और जब जीबको ज्ञान प्राप्त होगा ने यह वर्णन किया है कि उममें सदा | ता है और प्रकृति से बदामीन होजाता के वास्ते दुःखोंसे निवृत्ति रहती है। है तब प्रकृति भी उमके अर्थ प्रवृत्ति करना छोड़ देती है।
__“ नदृष्टत्तमिद्धिनिहत्तेप्यनुवृत्तिदर्श दोषोधेऽपिनोपसर्पगं प्रधानस्य | नात् । मा० ॥ १०॥ सू०२॥ कुमवथवत्" ॥ सां० ॥ ३ ॥ स.90 अर्थ--जो पदार्थ जगत्में दिखाई देते।
अर्थ- दोषके जात होजाने हीसे कुम्ल | हैं उनकी प्राप्ति से दुखोंकी अत्यन्त निबधूके समान प्रधान अर्थात् प्रकृतिका | वृत्ति नहीं होती क्योंकि जगत में देखा पास जाना नहीं होता--अर्थात् जिस जाता है कि दुःख दूर होकर भी कुछ प्रकार श्रेष्ठ घरोंकी खी दोष मालूम | समयकेपश्चात् फिर दुःख प्राप्त होजाताहहोने पर पतिको मुंह नहीं दिखाती | नानुअविकादपितत्सिहिःसाध्यत्वेना इसही प्रकार जब जीयको शान होग-वृत्तियोगादपुरुषार्थत्वम् ॥ सion woup पा और यह जान गया कि प्रकृति ही स०८२॥
यथा