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भार्थमतलीला ॥
१५९ के उपकारमें अविकनिमित्त है - स्था दोष हो जावेगा लाचार यह ही चात् यद्यपि जीव और प्रकृति का सं- मानना पड़ेगा कि अविवेक जीव के बंध नहीं तो भी प्रकृति से जो कार्य | साथ अनादि हैहोते हैं अर्थात् जीव का बंधन होकर ___"न नित्यः स्यादात्मवदन्यथानुवर अनेक प्रकार के नाच नाचता है| छित्तिः , ॥ सां० अ६॥ म०॥ १३ उम का निमित्त अविवेकही है- | अर्घ-अविवेक मात्माके ममान नित्य __ "इतर इतरबत्तदोषात् ॥ मांग नहीं है क्योंकि यदि नित्य होतो १०३ ॥ सू० ६४ ॥
उममा नाश नहीं हो सका अर्थात् श्र अर्थ-जिमको ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ।
विवेक जीव के माप अनादि है परंतु | बह अजामीके समान अजान दोष से
वह नित्य नहीं है और प्रारमा नित्य बंधन में रहता है--
है इस कारया अधिवेक का नाश हो "अनादिरविको अन्यथा दोषद्वय प्रसक्तः" ॥ मां० ॥ ० ६ ॥ सू० १२
___ "प्रतिनियतकारगानाश्यत्वमस्यध्या-1 अर्थ--प्रविवेक अनादि है अन्यथा दो
|न्तवत्" ॥ मां० ॥ २६ ॥ सू: १४ ॥ दोष होने का प्रसंग होने में अर्थात् प्रबि आर्य - जिम प्रकार प्रकाश से प्रधकार वे जिसके कारण जीव बंधन में पड़ा का नाश हो जाना है इमही प्रकार हा है वह जीयके साथ अनादिका नियमित कारया में मांबवक का भी से लगा हुआ है-यदि एमा न माना | नाश हो जाता है । अपात् विक्षक प्रजाये तो दो प्रकार के दोष प्राप्त होते | कट हो जाता है। हैं.-प्रथम यदि अधिवक अनादि नहीं] "विमुक्तबोधानसष्टिः प्रधानस्य | है और किमी कान में जीव उममे प. लोकवस् .. सां० ॥ ६ सू२ ४३ ॥ हिले बंध में नहीं था अर्थात् मुक्त चा अर्थ--विमुक्त बोध होने से लोकके ऐमा मानने से पर दोष प्रायोकि मुक्त तुल्य प्रधान की सृष्टि नहीं होतीजीव भी बंधन में फंस जाते हैं परन्तु अर्थात जब प्रकृतिको यह मानम हो ऐमा होना असम्भव है। दूसरा दोष गया कि अमुक जीव मुक्त होगया है यह है कि यदि अधिवेक अनादि नहीं | तो वह प्रकृति उस जीबके वास्ते सष्टि है और किमी ममय जीव में उत्पन्न | को नहीं रचती अर्थात् फिर वह जीव दुमा तो उमके उत्पन्न होनेका कारण | बंधन में नहीं आता। क्या है ? --- कर्म प्रादिक भी जो का- "नान्योपमर्पणापि मुक्तोपभोगोनिर अविवेक पैदा होनेके वर्णन किये | मित्ताभावात, ॥ सां० ॥६॥ स०४४ जावें यदि उनका भी कारण ढूंढा जाबे अर्थ--यद्यपि प्रकृति अविवेकियोंको तो अविवेक ही होगा इस हेतु अनव | बंधन में फंसाती रहती है परन्तु किसी