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आर्यमतलीला ॥
पूर्व नष्ट होजाता है तब जीबको मुक्ति ही प्रकार मक्त जीव को होलमा पड़होजाती है। परन्त मक्त जीवमें स्वामी ता है तो मुक्त जीबको परमानंदकी | जी मनिकर्ष ज्ञान स्थापित करते हैं। प्राप्ति कदाचित् भी नहीं कही ना अर्थात् संमारी जीवोंसे भी कमती ज्ञान सक्ती है। क्योंकि जिसने स्थान वा सिद्ध करना चाहते हैं।
जितनी वस्तु का मान प्राप्त करना शायद कोई हमारा प्रार्यभाई यह बाकी है उतनी ही मुक्तनीय के प्रानं कहने लगे कि मन्निहित पदार्थों का अ- में कमी है। यह बात स्वामीजी कह भिप्राय यह है कि जो पदार्थ मुक्तजीव ही चके हैं कि पर्ण ज्ञानका होना ही के सन्मुख होते हैं उनहीं को देख मक्ता मुक जीव का श्रानंद है। इसके प्रतिहै। परन्त ऐमा कहना भी बिना बि रिक्त जब मुक्त जीवको गी यह अभि चारे है क्योंकि शरीर धारी जीवा में नाषा रही कि मुझको अमुक २ स्थानों तो उनकी इन्द्री ए स्थान पर स्थित वा अमुक २ पदार्थों को जानना है तो होती है जैमा कि आंख मुखके जपर उम को परम आनंद हो ही नहीं सक्ता होता है। संमारी जीव आंख के द्वारा है यरया दुःख है। शहां अभिलाषा है देखता है। इस कारण प्रांख के मन्मु वहां दस अवश्य है। इस कारगा यह ख जो पदार्थ है उमही को देख मक्ता ही मानना पड़ेगा कि मुक्तजीय में पूर्ण है प्रांख के पीछे की वस्तु को नहीं दख ज्ञान होता है अर्थात् वह मवंत ही सका है । परन्त मुक्त जीवके शरीर नहीं होता है नमका ज्ञान किमी इन्द्री के आश्रित नहीं होता है, वरण वह प्रायमत लोला। स्वयम् ही ज्ञान स्वरूप है अर्थात् मब |
r [कर्म फल और ईश्वर ]
a mओर से देखता है। उसके वास्ते सर्वड़ी। पदार्थ मन्मख हैं। म हेत किमी प्र-I
(२१ ) कार भो मनिहित पदार्थ के ज्ञानका स्वामी दयानन्द मरम्मती जी मत्या. नियम कायम नहीं रह सक्ता है। प्रकाश में लिखते हैं कि यदि परमे__ यदि स्वामी दयानन्द जीके कयना-श्वर मुक्ति जीवों को, जो राग द्वेष नमार मक्त जीवको पदार्थों का ज्ञानक्रम रहित इंद्रियों के विषय भोगों से बि. रुप होता है अधांत सर्व पदार्थों का हीन स्वच्छ निर्मन रू.प अपने पास्म एक मगय में जान नहीं होता है वरण | स्वरूप में ठहरे हुये हैं और अपने जिम प्रकार संभारी जीव को संसार | सान स्वरूप में मम परमानन्द भोग दशा को देखने के वास्ते एक नगर से रहे हैं, मुक्ति स्थान से ढकनकर संदुमरे नगर में और एक देशसे दृमरे देश मार रूपी दुःख सागर में न गिराये और में डालते हुये फिरना पड़ता है । इम | सदा के लिये मुक्ति ही में रहने दे तो