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शामलीला ||
रते हैं और प्राप यह भी जानते हैं | पदेश देते हैं । कि रागद्वेष जीव का निज स्वभाव नहीं हैं बरा यह उस का जोवाधिक भाव है जो पूर्व कर्मों के यश उप को मास हुआ है। देखिये स्वयम् स्वामी दयानन्द श्री सत्यार्थ प्रकाश के पृष्ठ १२०-१९३० पर लिखने हैं:
"इंद्रियाणां निरोधन,
राग द्वेष क्षये । श्रहिमया च भूताना ममृतत्वाय कल्पते ॥ यदा भावेन भवति, सर्व भाषु निःस्पृहः । सदा सुखमवाप्नोति, प्रेत्य चेह च शाश्वतम्, इन श्लोकों का अर्थ स्वामी जी ने पृष्ठ १३१ पर हम प्रकार लिखा है -
(१) "इन्द्रियों को अधर्माचरण से रोक, राग द्वेषी छोड़, नत्र प्राणियों से निर बर्तकर मोक्ष के लिये सामबढ़ाया करे |
(२) जब संन्यासी सब भावों में प्रर्थात् पदार्थों में निःस्पृह फांक्षा रहित और सब बाहर भीतर के व्यवहारों में
भाव से पवित्र होना है तभी इस देह में और मरण पाके निरंतर सुख को प्राप्त होता है”
इस से स्पष्ट विदित हो गया कि राग द्वेष आदिक भावों को स्वामी जो भी खोपाधिक भानु बताते हैं इन ही कारण तो मुक्ति के माधन के या स्ते संन्यासी कोइन के छोड़ने का उ
इसी प्रकार स्वामी जी सत्यार्थ प्रकाश के पृष्ठ ४८ पर लिखते हैं"इन्द्रियाणां विवरताम्, विषयेष्वपारिषु । संपमे पत्रमातिष्ठ
द्विद्वान् यन्ते वाजिनाम् ॥"," अर्थ- जमे विद्वान् माथि घोड़ों की नियम में रखता है वैसे मन और शा
मा को खोटे कामों में खेंचने वाले विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों के निग्रह में प्रयत्न सन प्रकार से करें । इन्द्रियाणां प्रसंगेन,
दोष मृत्यसंशयम् । मन्नियम्यतु तान्येव, ततः सिद्धिं नियच्छति ॥ अर्थ- जीवात्मा इन्द्रियों के यश हो के निश्चित बड़े बड़े दोषों को प्राप्त होता है और जब इन्द्रियों को अपने बश करता है तभी सिद्विको प्राप्त होता है
वेदास्त्यागश्च यज्ञाश्च, नियमाश्च तपांसि च । न विप्रदुष्ट भावस्य सिद्धिं गच्छन्ति कर्हिचित् ॥ अर्थ- जो दुष्टाचारी अजितेन्द्रिय पुरुष है उसके बंद, त्याग, यक्ष, भियम और तप तथा अन्य अच्छे काम कभी सिद्धि को नहीं प्राप्त होते । प्यारे भाइयो ! अब विचारसीय यह है कि राग, द्वेष मौर छन्द्रियों के विषय भोग की बांच्छा श्रादिक बीमारी जिनके कारण यह जीव