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प्रायमसलीला ॥ एकाय अर्थात् एक परमात्मा और धर्म । इसके १४ गुणस्थान बर्शन किये हैं और यक्त कर्म इन के अग्र भागमें चित्तका प्रत्येक गुणास्थान के बहुत २ भेद किये ठहरा रखना निरुद्ध अर्थात् सब ओर हैं और कर्म प्रकृतियों के १४८ भेद से मन की बत्ति को रोकना ॥१॥ जब किये हैं। प्रत्येक गमस्थान में किसी२ चित्त एकाग्र और निरुद्ध होता है तब फर्म की सत्ता, उदय और बंध होता सब के द्रष्टा ईश्वर के स्वरूप में जीवा-है इसको बर्शन किया है और को ला की स्थिति होती
के उत्कर्षण अपकर्षण संक्रमण प्रादिक पारे भाइयो! इम सर्व लेख का का बर्णन यहत विस्तारके साथ किया अभिप्राय यह है कि स्वामी दयानन्द है। इस कारण सत्य की खोज करने का यह कहना कि मुक्ति भी कर्मों का घालों को उचित है कि वह पक्षपात |फल है बिस्कल असत्य है, बरस मुक्ति | छोष्ठकर जैन ग्रन्थोंका स्वाध्याय करें सोमई कर्मों के क्षय से प्राप्त होती है जिससे उनकी प्रविद्या दूर होकर क. अर्थात् जीव का सर्व प्रकार की सपा
| ल्याण का मार्ग प्राप्त होवे। धी से रहित होकर स्वतत्व सुप निर्मला और स्वच्छ हो जाना ही मुक्ति है।
| आर्यमतलीला। इस कारण स्वामी जी का यह कहना (ईश्वरकी भक्ति और उपासना) कि ईश्वर यदि मुक्ति जीव को मुक्ति
(२२) से निकाल कर और उसका परमानन्द स्वामी दयानन्द सरस्वतीजी मत्याछठाकर फिर उसको संसार में न डाले प्रकाश पृष्ठ १८२ पर यह प्रश्न उठाऔर दःख और पापों में न फंमावे तो ते हैं कि “ईश्वर अपने भक्तों के पाप ईश्वर अन्यायी ठहरता है बिलकुल ही क्षमा करता है या नहीं ? " फिर श्राअनाही पन की बात है-
पही इस प्रश्नका उत्तर इस प्रकार देते हैं। असल यह है कि स्वामीदयानन्दगी | “ नहीं क्योंकि जो पाप जमा करे ने कर्म और कर्म फलके गूढ मिद्वान्त | तो उसका न्याय नष्ट होजाय और सब को समझा ही नहीं। कर्म फिलोस मनुष्य महापापी होजावें क्योंकि क्षमा फी Philosophy का वर्णन जितना की बात सुनही कर उनको पाप करजैन ग्रंथों में है उतना और किसी भी नेमें निर्भयता और उत्साह होजाय मत के ग्रन्थों में नहीं है। स्वामी जैसे राजा अपराधको क्षमा करदे तो जी ने संसारी जीव के तीन गुणा | वे उत्माह,पर्वक, अधिक अधिक बड़े सत्व, रज और तम वर्णन किए हैं। पाप करें क्योंकि राजा अपना अपराध परन्तु जैन शास्त्रों में इम विषय को क्षमा करदेगा और उनको भी भरोसा इतना विस्तार के साथ लिखा है कि | होजाय कि राजासे हम हाथ जोड़ने