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श्रार्यमतलीला ||
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अपने अपने स्वभाव के अनुसार कार्य | जीव धर्म सेवन करता है त्यों त्यों मान माया, लोभ, क्रोध ज्ञादिक की कालिमा उम से दूर होती रहती है क्योंकि धर्म उसही मार्ग का नाम है जो मान, माया, लोभ और क्रोध प्रादिक - बायों को दूर करने वा दवाने वा कम करने का हेतु हो । और जब इन कषायों को बिलकुल रोककर यह जीव अात्मस्थ होता है अर्थात् अपनी हो मात्मा में स्थिर हो जाता है तब भ्रागामी कर्म पैदा होने बंद हो जाते हैं और पिछले कर्म भी ग्राहिस्ते र क्षम हो जाते हैं तब ही यह जीव स्वच्छ और शुद्ध होकर मुक्ति को प्राप्त हो
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जाता है ।
नहीं करती हैं और उन से फल नहीं प्राप्त होते हैं? बहुत से मनुष्यों को बाबत प्राप ने सुना होगा कि उन्हों ने अपनी मूर्खता से मिट्टी के तेल का कनस्तर भाग से ऐसी असावधानी से सोला कि याग कनस्तर के अंदर प हुंच गई और बाग भड़क कर मारा मकान जल भुनकर खाक हो गया । इस महान् दुःख के कार्य में क्या उम की मूर्खता हो कारण नहीं हुई और | क्या यह कहना चाहिये कि मूर्खताका काम तो मनुष्य ने किया परंतु उम का फल अर्थात् बारे मकान का जला देना यह काम ईश्वरने प्राकर किया । प्यारे भाइयो! यह जीव जब माम माया, लोभ मोर क्रोध यादिक कपायों के वश होकर मान, माया, लोभ और क्रोध आदिक करता है और जब यह इन्द्रियों के विषय में लगता है तो इस को इन मान माया यादि कका संस्कार होजाता है और इन कामों का इसको अभ्यास पड़ जाता है अर्थात् मान, माया, लोभ क्रोध था दिक उपाधियां हम में पैदा हो जाती हैं और उनका जीवात्मा मलिन हो जाता है । यह हो उसके कर्मों का फल है । इत्यादिक और भी जो जो कर्म यह जीव समय समय पर करता रहता है उसका असर इसके चित्त पर पड़ता रहता है और जीवात्मा होता रहता है । और ज्यों ज्यों यह युक्त हो पश्चात् उसका निरोध कर
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ॥१॥ तदा द्रष्टुः स्वरूपेवस्थानम् ॥२॥ ये योग शास्त्र पातंजलि के सूत्र हैं । मनुष्य रजो गुण तमो गुण युक्त कम मन को रोक शुद्ध सत्व गुत युक्त कर्मों से भी मनको रोक शुद्ध सत्व गुण
से
अशुद्ध
स्वामी दयानन्द मरस्वती जी ने भी इस ही प्रकार लिखा हैसत्यार्थप्रकाश पृष्ठ २५५
" इस प्रकार सत्व, रज और तमो गुण युक्त बेग से जिन २ प्रकारका कर्म जीव करता है उस २ को उमी २ प्रकार फल प्राप्त होता है। जो मुक्त होते हैं वे गुणातीत अर्थात् सब गुलों के स्वभावों में न फंसकर महायोगी होके मुक्ति का साधन करें क्योंकि