Book Title: Aryamatlila
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Tattva Prakashini Sabha

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Page 149
________________ श्रार्यमतलीला ॥ हब ही प्राशयको पुष्टीमें स्वामी दयानन्द जी सत्यार्थप्रकाश के पृष्ठ ९८३ पर लिखते हैं:-- 66 "" 46 ११ ८८ मे इमही की पुष्टिमें स्वामी दयानन्द श्री मत्यार्थप्रकाश के पृष्ठ १८४-८५ पर प्रार्थना और स्तुतिका कुछ नमूना लि हमसे अपने गुरु कर्म स्वभाव भी खते हैं कि किस प्रकार प्रार्थना और करना जैसे वह न्यायकारी है तो आप | स्तुति करनी चाहिये? जो प्रार्थना क भी न्यायकारी होवें और जो केवल रने वालेमें उत्तम गुणोंके देने वाली है high sate परमेश्वर के गुण कीर्तन उसका कुछ सारांश हम नीचे लिखते हैं करता जाता श्रीर अपने चरित्र नहीं आप प्रकाश स्वरूप हैं कृपाकर सुधारता उसका स्तुति करना व्यर्थ है--" मुझमें भी प्रकाश स्थापन कीजिये ।"। अभिप्राय इन लेखका बहुत ही स्पष्ट आप निन्दा स्तुति और स्वपराहै । स्वामी दयानन्द जी सगझाते हैं। धियोंका सहन करने वाले हैं कृपासे कि जो कोई परमेश्वरकी स्तुति प्रार्थना मुझको वैसा ही कीजिये । मेरा इस कारण करता है कि परमेश्वर मुझ | मन शुद्धगुणांकी इच्छा करके दुष्ट गुणों से प्रसन्न होगा तो उनका ऐसा करना पृथक रहै। हेजगदीश्वर ! जिससे चिकुन व्यर्थ है क्योंकि परमेश्वर स मत्र योगी लोग इन सब भूत, भविष्य पनी स्तुति प्रार्थना करने वाले राज़ी | वर्तमान, व्यवहारोंको जानते जो नाश या न करने वाले से नाराज नहीं होता | रहित जीवात्माको परमात्माके साथ है बरण परमेश्वर की स्तुति प्रार्थना क मिलके सव प्रकार त्रिकालज्ञ करता है रमेका हेतु तो यह ही है कि परमे जिनमें ज्ञान क्रिया है, पांच ज्ञानेन्द्रिय श्वरके गुणानुवादसे परमेश्वर जमे गुण | बुद्धि और आत्मायुक्त रहता है उस हममें होजायें इस कारण स्वामी दया- योगरूप यज्ञको जिससे बढ़ाते हैं वह मन्द जी कहते हैं कि परमेवर की स्तुति | मेरा मनयोग विज्ञान युक्त होकर विप्रार्थना करने वाले को उचित है कि अद्यादि क्लेशों से पृथक रहे । हे सर्व पने गुण कर्म स्वभावों को परमेश्वर के गया नियन्ता ईश्वर ! जो मेरा मन रस्मीसे कर्म स्वभावों के अनकल करनेकी को घोड़ोंके समान अथवा घोड़ों के निय शिश करता रहे और सदा इम यात न्ता सारथीके तुल्य मनुष्यों को अत्यन्त का विचार रक्खे कि मैं परमेश्वर के जिन गया कर्म स्वभावोंकी स्तुति करता हूं वैसे ही गुण कर्म स्वभाव मेरे भी हो जायें - तबही उसकी स्तुति प्रार्थना फलदायक होगी और यहही ईश्वरकी स्तुति प्रार्थनाका अभिप्राय है ॥ । ܙ ९४५ इधर उधर बुलाता है जो हृदय में प्र तिष्ठित गतिमान् और अत्यन्त वेगवाला है वह सब इन्द्रियोंको धर्माचरण से रोकके धर्मपथमें सदा चलाया करे ऐसी कृपा मुझ पर कीजिये । ” | हे सुखके दाता ! स्वप्रकाशरूप सबकी १९

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