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मार्यमतलीला ॥
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बरण मुक्ति में तो शांति और स्थिर-खाया जो म्याय और वैशेषिक शास्त्रों सा ही परमानन्द का कारण है। के पर्योक्त संमारी देहधारी जीवके ल
स्वामी दयानन्द सरस्वतीने भी स्थि- क्षणको अर्थात् औपाधिक भावको जी. रताको ही मुक्ति और परमानन्द कायका असली स्वभाव मान लिया और सपाय पर्वाचार्यों के अनुमार लिखा है। ऐमा मानकर शाद स्वरूप मुक्त जीवों ऋग्वेदादि भाष्य भमिका पत्र १८७ ) में भी यह सघ उपाधियां लगा दी "नो"भरपय अर्थात् शुद्ध हदय और मुक्त जीवको भी संभारी श्रीवके सपी बन में स्थिरता के साथ निवाम तुल्य बनाकर कल्याणके मार्गको मष्ट करते हैं वे परमेश्वर के समीप बास भट करदिया और धर्मकी जल काटदी। करते हैं,
पारे प्रार्य भाइयो ! यह नो माप ग्वंदादि भाष्य भूमिका पष्ठ १११ को मालूम होगया कि जिस प्रकार “जिससे पामम का मन एकाग्रता प्रस्थाभी दवानन्दजी ने जीवका साक्षगा मन्नता और शाम को यथावत् प्राप्त ममझा है और न्याय शीर वैशेषिक होकर स्थिर हो,
दर्शनोंके हयाले से लिखा है वह विसत्यार्थ प्रकाश पृष्ठ १२६ फार माहित बंधन में फंसे हुये जीव का"यरुद्वारा मनमीमाक्ष- लगा है परन्तु अब आप यह जानना स्तन्छ ज जानमारमनि। चाहते होंगे कि जीयका असली लक्ष. जानमात्मनिमहति नियमले, या है? हम कारण हम भापको
तद्यच्छच्छान्त आत्मनि ॥ सताते हैं कि जीवका लनव ज्ञान है। सन्यामी वृद्धिमान् वाणी भीर मान! लक्षण यह होता है जो तीन प्रकार को अधर्म से रोके उनकी जान नीर के दो पीसे रहित हो । १ अव्याप्त २ प्रात्मामें लगावे और ज्ञानस्वात्माको प्रतिव्यात असम्भव । जो लक्षण किमी परमात्मा में लगाये और उम विज्ञान | वस्तु का किया जाने यदि वह लक्षाशा को शान्त स्वरूप प्रात्मामें स्थिर करे.." उन वस्तु में कमी पाया जावे और
उपयंक्त स्वामी जी के ही लेखों में भी न पाया जावे या अम के एक सिद्ध होगया कि शान्ति और स्थिरता देश में पाया जाये तो उस लक्ष या ही जीवके वास्ते मुक्तिका साधन और में प्रव्याप्ति दोष कहलाता है जैमा स्थिरता ही परगानन्द का कारण है कि जो लतमा स्वामी जी में न्याय इस हेतु मुक्तिनीय इधर उधर डोलते और वैशेयक शास्त्र के कथनके शान मार नहीं फिरते हैं वरगा राग द्वेष रक्षित वर्णन किये हैं यह जीवके लक्षण नहीं स्थिर पित्त ज्ञान स्वरूप परमानन्द में हो सक्ते क्योंकि यह लक्षगा संसारी | मम रहते हैं।
जीव में पाये जाते हैं और मुक्ति जीव स्वामी दयानन्दजीसे बड़ा धोखा में नहीं, इस कार या इन लक्षणों में अ