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भार्यमततोला । चार माना जाना, निद्रयों का विषय है स्वाभाविक भाव नहीं है इसकी भोग करना, भंख, प्याम, शारीरिक कारण मुक्ति में शरीर नहीं होता है. बीमारी, सुख, दःख, इच्छा, देष और यदि देव धारण करना जीव का स्वा. प्रया यह सब बातें जीव के स्वाभा- भाविक भाव होता तो मुक्ति में भी विक गुण है, अर्थात् यह सब बातें शरीर कदाचित् न छूट सकता। देखो जीव के साथ सदा बनी रहती हैं और स्वामी जी स्वयम् सत्यार्थप्रकाश में कभी जीव से अलग नहीं हो सकी हम प्रफार लिखते हैं
मत्यार्थ प्रकाश पृष्ट १२८ है। तब की तो स्वामी जी यह कहते |
__ " न म शरीरस्यमतः नियमिययोर हैं कि मुक्ति दशा में भी जीवात्मा |
|पतिरम्स्यशरीरं वा वसन्तं न प्रियाअपनी इच्छा के अनुमार सर्व ब्रह्मांष्ठ |
प्रिये स्पशतः" ॥ छान्दो० ॥ में घमता फिरता रहता है और सर्व
जो देवधारी है वह सुख दुःख की स्थान के स्वाद लेता राता है और
राप्राप्ति से पथक कभी नहीं रह सकता तब ही तो स्वामी जी यह समझाते और जो शरीर रहित जीवात्मा मुक्ति है कि जनी लोग मुक्त जीवों के वास्ते |
वास्त में सर्व ध्यापक परमेश्वर के साथ शुद्ध एक स्थान नियत करके और नमकी |
"होकर रहता है तब तमको सांसारिक म्भिर अवस्था बना कर उनको जड़ बमुख दास प्राप्त नहीं होतास्त के समान बनाना चाहते हैं। | अपर के लेखसे स्पष्ट विदित है कि जिम प्रकार तोते को बहुत सी बो-मांसारिक अवस्था प्रोपाधिक अवस्था ली बोबनी मिसा दी जाती हैं और स्वाभाधिक अवस्था नहीं है क्योंकि या पती सम मिलाये हुने शब्दों को मक्ति में जीव शुद्ध अवस्था में रहता बोलने लगता है परन्तु सन वाक्योंका और संसार में उमको अवस्था प्र. अर्थ विकुन भी नहीं समझता, पशद्ध है-स्वमात्र से बिरुद्ध अवस्था को ही प्रकार स्वामी जी की दशा मालूम ही अशुद्ध अवस्या कहते हैं अशुद्धि,
ती कि भनेक ग्रन्थ देख डावे उपाधि और विकार यह सब शब्द एक परंत समझा कुछ नी माहीं । स्वामीजी अर्थक बाचक हैं और इनके प्रतिको इतनी भी मोटी समझ न हुई कि पक्षी शद्ध, स्वच्छ और निर्मल एक उपतको सक्षम जीव के न्याय वा अर्थ के बाचक हैं जब सर्व प्रकार की वाधिक दर्शनों में वर्णन किये हैं पर उपाधि जीव की दूर जाती हैं और संभारी जीव के देहधारी के हैं। जीव माफ होकर अपने असली स्वकोकि मुक्ति में जीव शरीर रहिन भाव में रह जाता तब ही जीव की मिर्मल और खहो जाता है। मुक्ति दशा कहलाती है। मुक्ति करते पारसकरना बीवका श्रीपाधिक भाव' टनेको छूटना जिससे विकारसे
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