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आर्यमतलीला ॥
अब देखना यह है कि सपाधि वाही सकता है। इस वास्ते रानी । विकार जो संमारी जीवों को लगे र-संसारी देहधारी उपाधिसहित जीवी में| हते हैं वह क्या है और जीव का अ- ही होता है। मुक्त जीव में रागद्वेष | सली स्वाभाव क्या है?= | भी नहीं हो सकता है। देखिये स्वामी
उपयत लेख से यह तो विदित ही दयानन्द जी मुक्ति सुखको इस प्रकार है कि शरीर धारी होना जीवका स्व- | वर्णन करते हैंभाव नहीं है धरण शरीर भी जीयके ऋग्वदादि भाष्य भूमिका पृष्ट १९२ वास्ते एक उपोधि है।
___ " सब प्रकार की बाधा इस प्रकार समझने के पश्चात् जन अर्थात् इच्छाविघात और हमारे प्यारे प्रार्य भाई न्याय और | वैशेषिक शाखों के कथन किये हुये |
| परतन्त्रता का नाम दुःख है जीवके लक्षणों को जांच करेंगे तो मा
फिर उस दःख के अत्यन्त अ लम होजावेगा कि यह मय लक्षण सं-भाव और परमात्माके नित्य सारी देहधारी जीवके हैं अर्थात् जीय | योग करने से जो सब दिनके के उपाधिक भाव के लक्षण हैं । जीव
लिये परमानन्द प्राप्त होता है के असली स्वाभाव के वह लक्षण क
उसी सुखका नाम मोक्ष है-" दाचित् नहीं हो सकते हैं क्योंकि वह | मब लक्षम देहधारी जीव में ही दो लपक लेख से स्पष्ट यिदित होता सकते हैं, देह रहित में कदाचित नहीं
है मिला और दंष ही जीव को हो सकते क्योंकि सांस लेना, प्रांखों
बाधा पहुंचाती हैं और इन ही के दूर
होनेसे जीव स्वच्छ और निर्मल :को खोलना मंदना, सांख, नांक, और
कर अपना प्रमली स्वभाव प्राप्त करता है।
| प्रयत्न भी संसारी जीव ही कोक इन्द्रियों के द्वारा विषय भोग करना
रना पड़ता है क्योंकि प्रयत्न उमही बात प्रादिक सर्व क्रिया देहधारी जीव में |
के वास्ते किया जाता है जो पहले से ही हो सकती हैं। देहरहित मुक्त जी-1
"प्राप्त नहीं है और जिसकी प्राप्ति की। में इनमें से कोई भी बात नहीं हो इच्छा है अर्थात् जिसकी अप्राप्ति से सकती है। और संमार में जो सुख दुःख जीव टःख मान रहा है। मुक्ति में न कारलाता है वह भी देहधारी ही में है और न दुःख है इस कारक होता है। मुक्त जीव तो संसारिक सुखमति में प्रयत्न की कोई आवश्यक्ता दःख से प्रषक होकर परमानन्द ही में ही नहीं है। वानमार गमनागन रहता है। संसारिक सुख दुःखका का-मी एक प्रकार का प्रयास का. रश सिवाय रागढ पके और कुछ नहीं 'रया यह भी मुक्ति में नहीं हो सका।
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