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आर्यनतस्त्रीला
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त्यागकर मुक्ति प्राप्त की और यह म वह परमानन्द भोगता है ? जाना जावे और मुक्ति जीव का कोई | क्योंकि जय मुरु जीव में भी स्वामी नियमित शरीर माना जावे तो भी | दयानन्द के कथनानुसार इकठा है और स्वामी दयानन्द सरस्वतीजी महारावह अपनी इच्छा के अनुसार आनन्द मुक्तजीव में हाका दीप पैदा भोगता फिरता रहता है तो क्या म करने के वास्ते यह ही कहेंगे कि मु- को ऐसी इच्छा होनी असम्भव है कि फि होते ममय जी का कुछ होश सर्व स्थानों का आनन्द एक ही बार शेर हो परन्तु मुक्ति अवस्था में मुक्त | भोगलं ? और उनकी ऐमी हु जीव अपनी कल्पना अर्थात एक के हो मकती है और उन इच्छा की पूअनुमार अपना शरीर घटाता बढ़ा तिंन हो सके तो जमा के विषता रहता है । बीन कार्य होने ही का तो नाम दुःख है- दुःख इसके सिवाय और तो कोई बस्तु नहीं है फिर परमानंद कहां रहा? गरज स्वामी जी की यह श्रमत्यबात किसी प्रकार भी मिटु नहीं हो सक्ती कि. मुक्ति जीव में इच्छा रहती है, है बरण अपभी है।
क्यों प्यारे प्रायं भाइयो ! हम प्राप से पढ़ते हैं कि स्वामी दयानन्द के इस मिद्धान्त पर कभी आपने ध्यान भी दिया है कि मुक्त जीव अपनी छा
अनुमार अपने संकल्पी शरीर के साथ सब जगह विचरता हुआ परमानन्द भोगता रहता है ? प्यारे भाइयो ! यदि ज़रा भी आपने इस पर ध्यान दिया होता तो कदाचित् भी आप इस मिट्टान्त को न मानते । परन्तु स्वामी जीने जाप को संमार की वृद्धि में ऐमा प्रासक्त कर दिया है कि आपको उन धार्मिक सिद्धान्तों पर विचार करने का अवसर ही नहीं मिलता है। आप जानते हैं कि जीवको
इस पर हम यह पूछते हैं कि मुक्त जीव अपने थापको अपनी कल्पना के अनुसार मना भी बड़ायना सकता ३ वा नहीं कि वह म म में फैन आबे प्रथांत ईश्वर की नाई सर्व व्यापक हो। जावें ? यदि यह कहा जाये कि वह ऐसा कर सकता है तो मुक्त जीव मुक्ति पाते ही मर्वव्यापक यों नहीं हो जाते हैं जिम से उन को नाना प्रकार के मंकरूपी रूप धारण करने और जगह जगह विचरने अर्थात् मुख की प्राप्ति में भटकते फिरने की छात्रश्यकता न रहे बरण एक ही समय में सुखों का मजा स्वामी जी के कथनानुमार उड़ाते रहें ।
यदि यह कही कि मुक्ति जीव मर्य व्यापक नहीं हो सकता वरणा प्राकाश और परमेश्वर यह दोही सर्वव्यापक हैं और हो सकते हैं तो यह क्यों क इते हो कि जीवन के
मुक्त गुण कर्म स्वभाव ब्रह्मके सदृश होकर