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मार्यमलमोला ।
माम कभी नहीं होता ऐमे परमपदको "जमे मोने की अग्निमें तपाके निप्राप्त होके मद। भानन्द में रदने हैं "मग करदेते हैं वैसे ही प्रात्मा और मप्राग्वदादि भाष्यभूमिका पृष्ठ १९०नको धर्माचरा और शुभ गुणांके श्रा
"प लिखी हुई चिनकी पांच चरणा रूपमे निर्मन कर देना " त्तियों को यथावत् रोकने और माल पाटकगगा ! श्रापको प्राश्चर्य होगा | साधनमें मम दिन प्रत रहने मे पांच कि स्वामी दयानन्दगी अपनी पुस्तक कोश नष्ट हो जाते हैं प्रिया २ नंदादि माममिका में स्वयम् 3. मिना ३ गग ४ ६६५ निवश उनपर्यत प्रकार लिखकर फिर मत्यार्थप्रमें। अभिमतादि धार लगा और मि-काज में तुम बानके मिद करने की को
पा भाषणादि दीपांकी माता वि.शिश करते हैं कि मुक्ति मदाके वास्ते द्य है जो कि सूट जाबांशी अन्धमार नहीं होती है और कर्मों के क्षयमे मुक्ति में फमा के पान्म मर गादि दुर मग में नहीं होती है बागा मुक्ति भी कर्मों का म छुवाती है । परन्त मान विहान फन है । परन्तु यह कल आश्चर्य की बात और धर्मात्मा उपासक को मत्ययिता नहीं है क्योंकि कोई अमत्य की पष्टि में नाविद्या भिन्न २ होके नष्ट जाती करता है उसके वचन पर्वापर विरोध है नय के जीव मुक्ति को प्राप्त हो जाते हैं।
रहित हुआ ही नहीं करते हैं । स्थाऋग्वेदादि माध्यमांशा पर १८२ मीनिक ग्रन्यांको पटा और प्रायः .. जन अविद्यादि ग दूर मा नि.
मगार मि मुक्तिको सदाके वास्तलि द्यादि शभ गुगा माती तब जव
खापा और मुक्ति प्राप्त होनका का. मव बन्धना और गाने खटक मुकमा नकमाका क्षय होकर जीवका शुद्ध को प्रास होजाना,
प्र निर्भर गाना ही मानाऋग्दादि भाभगका पृष्ट १०२ माँ के वाक्यों में पाया इस कारण स्वा. " जय मव दोषांम प्रदान कि सान
मोमी गत्य यातनी दिपा न सके और की प्रार प्रात्म। झता है तय कंवल्य माक्ष धर्म के मकामाचन परिण डॉ. ऋग्वदादि भाष्यभूमिका में उनको ऐसा जाना है नमी जावको मोक्ष प्राप्त होता लिखना ही पट्टा । परन्तु अपने शिहै पांकि जबतक बन्धन कामामें ! ज्यों को खश करने के वास्ते इधर उधर जीव फमता जाता है तबतक उमका की अट कनपच्च यातासे उन्होंने मु- । मुक्ति प्राप्त होना असम्भव है." किसे नीटना भी सत्यार्थप्रकाशमें व
ऋग्वदादि भाष्यनिका पष्ठ १८१पर न करदिया ॥ मक्तिके माधनां में मे एक माधन तप है। ऋग्दादि भाष्यभूमिका के उपयुक्त जिमको ध्यारूपा स्वामी जी इस प्रकार पायासे हमारे प्रार्थ भाइयों को यह भी करते हैं
। विदित होगगा होगा कि मुक्ति का.