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प्रार्यमतलीला ॥
एक प्रकार के कार्य को छोड़कर दूसरे हैं कि देखो पुन्य पापका फल, एक पा. प्रकार का कार्य ग्रहण करने की प्रा-नकी में प्रानन्दपूर्वक बैठा और दूवश्यकता सभी होती है जब प्रथम सरे बिना जते पहिरे ऊपर नीचेसे तकार्य से पृसा हो जाती है अर्थात् वह प्यमान होते हुए पालकी को उठाकर दुखदाई को जाता है व दूसरा काये | ले जाते हैं परन्तु बद्धिमान् लोग इसमें उमसे अधिक सुखदाई प्रतीत होने - यह जानते हैं कि जैसे २ कचहरी निगता है इस ही प्रकार मुक्त जीव अप
| कट पाती जाती है वैसे माहूकार को ने एक प्रकार के संकल्पी गरीर को |
बड़ा शोक और मन्देह बढ़ता जाता तभी होगा और एक स्थान मे दूमरे.
मर और कहारोंको प्रानन्द होता जाता है"स्थान में तब ही विचरैगा जबकि प. हला संगरूपी शरीर उसको दुखदाई
| प्रिय पाठको ! उपर्युक्त लेख में स्वामी प्रतीत होगी वा दूभरे प्रकार का ग-जान स्वयं मिट्ट करा दया कि सुख दुःख रीर या दूमरा स्थान अधिक सुखदाई किमी सामग्रीके कम बेश मिलने पर मातम छागा । अब पाप ही विचार नहीं है बरमालाकी कमी वा बढलीजिये कि यदि मक्ति में इस प्रकार ती पर है-परन्तु इन तमाम बातोंको मुक्त जीव की अवस्था होनी रहती है मानते हुए भी स्वामी दयानन्दने धर्म तो क्या यह कहना ठीक है कि मक्तजीव को नष्ट भष्ट करने और हिन्दुम्नानके परमानन्द में रहता है? कदापि नहीं । जीवों को मंमार के विषयों में मोहित
मंमारमें जो कुछ दःख है वह यह हरुडा करनेके वास्ते डहाका यहां तक सहोतो है उमके मिवाय मंमार में भी और बक या पाठ पढ़ाया कि मुक्तिदशामें या दःख है ? नहीं नो संसारको कोई भी वा सिखादी और संसारको इवस्तु या कोई अवस्था भी जोधके बा- तनी महिमा गाई कि मुक्तिने भी सं. स्ते सुखदाईबा दुखदाई नहीं कही जा| मारमें पानेकी आवश्यकता बतादीसकती है. इस हमारी बातको स्वामी स्वामी दयानन्द सरस्वतीजीको प्रदयानन्द ने मत्यार्थप्रकाशके पृष्ठ २४७ पर पनी अमात्य और अधर्मको बातां सिद्ध । एक दृष्टान्त देकर मिटु किया है जिस करनेके वास्ते बड़ी बेतुकी दलीलोंकी को हम क्योंका त्यों लिखते हैं:
काममें लाना पड़ा है। पाप लिखते * "जैसे किमी माहकारका विवाद राज घरमें लाख रुपये का हो तो वह अपने
है कि यदि मुक्तिो जीव जाते ही हैं।
और लीटें नहीं तो मुक्तिके स्थान में ' घरसे पालकी में बैठकर कचहरी में उण| काल में जाता हो बाज़ारमें होक उम |
बहुत भीड़ भाका होजायेगा। को जाता देखकर अन्नानी लोग कहते | + सत्यार्थप्रकाशके पष्ठ २४० पर।।