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आर्यनतलोला ॥
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स्वामी जी
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लगाचा ? इस कारज्ञ को उम समय के अंगरेजी पढ़े हिन्दुनों की रुचिके वास्ते जहां अन्य अनेक नवीन सिद्धान्त घड़ने पड़े वहां मुक्तिके विषयमें भी धर्मका बिल्कुल विध्वंस करने वाला यह सिद्धान्त निकर्मोसे रहित होही नहीं सकता है यत करना पड़ा कि जीवात्मा कभी और इच्छा द्वेष इससे कभी दूर होही नहीं सकते हैं ॥
प्रचार अधिक होता जाता है लोग पदले की तरह ब्राह्मणों वा उपदेशकों के वाक्यों पर निर्भर नहीं है वरण स्वयम् शास्त्रों का स्वाध्याय करते हैं। हम कारण जब प्राप्यं लोगों में वेदों के पढ़ने का प्रचार होगा तब हो उन को जाम झूठा प्रतीत हो जावेगा ।
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प्यारे आय् भाइयो! आपको संदेह होगा और छाप प्रश्न करेंगे कि स्वामी की को प्रार्थ्य मत स्थापन करने और झूठ सच बातें बनाकर हिन्दुप्यारे कार्य भाइयो ! हमारा यह अस्तान के लोगों को अपने झंडे तले लाने की क्या प्रावश्यकता थी ? इम नुमान ही नहीं है बरण हम मत्यार्थका उत्तर यदि आप विचार करेंगे तो | प्रकाशमे स्पष्ट दिखाना चाहते हैं कि आप को स्वयम् ही मिल जावेगा कि स्वामी जी अपने हृदय में मानते थे कि स्वामी जी एक प्रकार से परोपकारी | इच्छाके दूर होनेसे ही सुख होता है। थे उनके समय में बहुत हिंदू लोग ई- इच्छा द्वं पक्के पूर्ण प्रभाव से ही परमासाई होने लगे और अगरेजी लिखे नन्द प्राप्त होता है । परमानन्द ही का पढ़ों की हिन्दू धर्म से घृणा होने ल नाम मुक्ति होता है और मुक्ति प्राप्त गी थी । स्वामी जी को इम का बड़ा होकर फिर जीव कर्मोके बंधन में नहीं दुःखया उन्होंने जिम तिम प्रकार पड़ता है परन्तु ऐसा मानते हुए भी अंगरेजी पढ़ने वाले हिन्दुओं को ई- स्वामीजीने इन सब मिद्धान्तों के विमाई होने से बजाया और जो २ बातें। रुद्ध कहना पसन्द किया । देखियेउन लोगों को प्रिय थीं वह सब प्राचीन हिंदू ग्रन्थों में खाई और वेद जो प्रसिद्ध थे उन की नवीन सिद्धान्तों का आश्रय बनालिया । अंगरेजी पढ़ लिखे | हिंदू भाई जिन्हों ने अंगरेजी फ़िलासफ़ी में अचेतनपदार्थ का ही वर्णन पढ़ा था उनकी समझ में जीवात्मा का कर्म रहित होकर मुक्ति में नित्य के
(१) सत्यार्थप्रकाशके पृष्ठ २५० पर सिद्ध करके दि | स्वामीजी लिखते हैं-सब से प्राचीन
सब जीव स्वभावसे सुख प्राप्तिकी इच्छा और दुःखका का वियोग होना चा इते हैं- ।”
( २ ) सत्यार्थप्रकाशके पृष्ठ ९८८ पर स्वामीजी लिखते हैं:
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जब उपामना करना चाहे तब एकान्त शुद्ध देशमें जाकर प्रासन लगा लिए रहने का सिद्धांत कब खाने । प्राणायाम कर बाह्य विषयों से इन्द्रि
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