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मार्यमतलीला ॥
(५५) में से कोई काम भी नहीं जानते। देरहा है वा संसारको मनुष्य अपनी न
खानीजी के कथनानुसार जो मनुष्य | घस्था को अनुमार कथन कर रहे हैं.. सधिकादिमें बिना मा बाप पैदा | ऋग्वेद प्रथम मंडला सूक्त १६१ ऋ० ११ किये गये घे वह तो वहणियों से भी प्र- " हे नेता अग्रगन्ता जनी तुम अपने शाम होंगे क्योंकि सम्होंने तो अपनेसे | को उत्तम कामकी इच्छासे इस गवादि पहले किमी मनव्यको या ममय कि- पशुके लिये नोचे और ऊंचे प्रदेशों में सो कर्तव्यको देखा ही नहीं है। इस | काटने योग्य थामको और जलोंको 3कारण जो शिक्षा ग्रामीण लोगों को दी। स्पा करो। जा सकती है उससे भी बहुत मोटो २ जाग्वद चौथा मंडल सूक्त ५७ ऋ४५-८ पातों को शिक्षा वाही लोगों को दी “हे खेती करने वाले जन : जैसे बैल श्राजा सकती है और सष्टिकी भादि में | दि पशु सुख को प्राप्त हों, मुखिया क़. उत्पन हुए मनुष्यों के वास्ते तो बता पायान सुखको करें, हलफा अवयब सुख ही ज्यादा मोटी शिक्षाको अमरत है-- |
जसे हो धैले पथिवी में प्रविष्ट हो और
बैलप्मी रस्मी सुख पूर्वक यांधी जाय, इस कारमा बदि हम यह कहते हैं कि
कसे खेती के साधन के अवयव को मुख वेदों का मज़मून ग्रामीण लोगोंके घि-
पर्यफ ऊपर चलायो। षषका ६ तो हम वहा का मशमा क हे क्षेत्र के स्वामी और भन्य साप रते हैं और जो लोग यह कहते हैं कि दोनों जिम इम कृषिविद्याको प्रकाश घेदों की शिक्षा सष्टिके आदिमें उत्पन्न करने वाली वाणी और जल को कृषि हुए मनुष्यों को दी गई थी जो जंगनी विद्याके प्रकाशमें करते हैं उनकी सेवा। पशु के समान थ अथोत् ग्रामीण लोगो करो इम से इस भमिको साँचो । से। से भी मुख पे तो वह वेदों की निन्दा भनि खोदने की फाल वैन श्रादिकों के करते हैं - खैर ! निन्दा हो वा स्तुति हम को
द्वारा हम लोगों के लिये भूमिको सुख |
| पूर्वक खोर्दै किसान सुख को प्राप्त हों वेदोंके हो मज़मूनों से देखना चाहिये: कि उसका मजमून किन लोगोंके प्रति | मेघ मधुर प्रादि गुण से और जलों से | मासूम होता है-इस बात की जांचक सुखको वर्षा पैसे सुख देनेवाले स्वामी बास्ते हम स्वामी दयानन्द सरस्वती और भृत्य कृषिकर्म करनेवास्ते तुम दोनों जीके वेदभाष्य मर्यात स्वामीजीके ब- हम लोगों में सुखको धारणा करो।, माये वेदोंके भोंसे कुछ वाक्य लिखते | ऋग्वेद पंचम महान सूक्त २० ऋ०२ हैं जिससे यह सब बात स्पष्ट विदित | "हे सबमें प्रकाशमान विद्धन जो अहो जावेगी। और यह भी मालम हो सम प्रकार प्रशंसा किया गया अत्यंत जावेगा कि वेदोंके द्वारा ईश्वर शिक्षा बढ़ता अर्थात् वृद्धि को प्राप्त होता हुआ