Book Title: Anekant 1989 Book 42 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 20
________________ १६ बर्ष ४२ कि.. अनेकान्त इस प्रकार प्रश्न उठता है कि क्या उक्त दोनों विद्वान् खंडागम कहां है ? यहां हमें संकेत मिलता है कि भाचार्य मुनियों ने अपने को इन हीनाक्षरी एवं घनाक्षरी विद्याओं कुन्दकुन्द ने षटखंडागम के प्रथम तीन खंडों पर परिकर्म में पारंगत न बनाया होगा? फिर अपने को इनमे पारगत नामक टीका लिखी थी। इसके गणितीय उल्लेखों का बनाकर क्या षट्खंडागम के दो रूप प्ररूपित न किये उतरण कई स्थानों में वीरसेनाचार्य की धवला टीका में होंगे? एक रूप तो हमारे सामने व्याकरणी है जो प्राकृत आता है। इससे स्पष्ट है कि षट्खंडागम के अनेक प्रकरण भाषा का है। यह पढ़ने और समझने में सरल है। किन्तु गोम्मटसार जैसे या लब्धिसार जैसे ग्रन्थों में आये अर्थइसके यदि दूसरे रूप की बात आती है तो उसे हम केशव- सदृष्टियो, अंक-संदृष्टियों एवं आकृतिरूप संदृष्टियों के रूप वर्णी की कर्णाटक वृत्ति में एक विशाल अप्रतिम अदभत में होने की संभावना है, जो धवल के पूर्व की टीकाओं में करणीय या परिकर्माष्टक (गणितीय) रूप में देखते हैं। उपलब्ध रहे होंगे और बहुत सम्भव है कि वह रूप अत्यदोनों रूप क्यो आवश्यक प्रतीत हुए यह भी एक प्रश्न है। धिक कठिन होने के कारण एक तरफ रख दिया गया ऐसे दोनो रूपो मे क्या आचार्य पुष्पदंत एवं भूतबलि ने होगा-युग-युगान्तरों में जब लेख प्रति बनाने वालों को रचना न की होगी-यह प्रश्न उठता है। साथ ही यह अत्यधिक कठिनाई उन्हें साथ-साथ चलाने में प्रतीत हुई प्रश्न तब उठता है जबकि हम पंडित टोडरमल को सम्यक होगी, अनुभव मे आई होगी। ज्ञान चन्द्रिका टीका मे जुदे-जुदे रूप मे जुदी-जूदी जगह उक्त कथानक हमें इस ओर प्रेरित करता है कि रखा हुआ पाते है । भाष। वनिका के लिए तो व्याकर- व्याकरणीय भाषा नहीं वरन गहन अर्थ पाने हेतु हमे णीय भाषा उपयुक्त है किन्तु गहन सूक्ष्म अध्ययन के लिए गणितीय भाषा को ग्रहण कर उसमें पारंगत श्रेष्ठ विद्वानों संक्षिप्त करणीय या परिकष्टिक भाषा ही उपयुक्त प्रतीत की एक ऐसी परम्परा का निर्माण कर दें जो उक्त कथानक होती है। के अनुरूप इस प्रकार की शोध मे जुट जाये। यही ध्येय इतिहास में यह कथानक इस प्रकार एक प्रश्नचिह्न लेकर यह आचार्य श्री विद्यासागर शोधसंस्थान स्थापित लगा देता है। प्राचीनकाल उस युग मे लगभग उसी समय किया गया है कि हम अपने प्राचीन रहस्यों को शोध कर कोलयुक्त वेबिलनीय भाषा में भी दो रूप देखने में आते है। शोधी प्रतिभाशील विद्यार्थियों द्वारा अपनी परम्परा को उस समय का गणित ज्योतिष विज्ञान इसी प्रकार की दो सुरक्षित रख सकें और उस घरोहर से जनता को प्रतिबोधित भाषाओ में लिखा गया है। तब पुनः प्रश्न उठता है कि करते रहें । यदि व्याकरणीय रूप भाषा वाला षखंडागम हमे उपलब्ध निदेशक (आचार्य श्री विद्यासागर शोध संस्थान) है तो करणीय रूप या परिकर्माष्टक भाषा वाला षट् ५५४ सराफा (सूर्य इन्पोरियम) जबलपुर सन्दर्भ-सूची देखिये षट्खडागम, ब्र० पं० सुमतिबाई शाहा द्वारा वीरात् ६०८ वर्ष पश्चात् योनिप्राभत की रचना की संपादित, संस्करण १९६५, प्रस्तावना, १.११०। देखिये योनिप्राभूत का धवल में उल्लेख । षटखंडागा ग्रंथ के मूलग्रथकर्ता वर्धमान भट्टारक हैं। ३. ये आन्ध्र देश के वेन्नातट से संबंधित थे । अनुग्रंथकर्ता गौतम स्वामी हैं और उपग्रथकर्ता रागद्वेष ४. श्रीमन्नेमि जिनेश्वर सिद्धि सिलयां विधानतो विद्या संसाधनं विदधतोस्तमी पुरतः स्थिते देव्यो ॥११६॥ मोहरहित भूतबलि पुष्पदंत मुनिवर है। षट्खडागम (इन्द्रनन्दि श्रुतावतार)। पुस्तक १, पृ. ६७-७२ । पुष्पदत द्वारा १७७ सूत्र, ' ४. देखिये दो का अंक किस प्रकार यहां चल रहा है। भूतबलि द्वारा ६००० सूत्र रचित हुए। ५. एकाक्षी। २. आचार्य धरसेन काठियावाड़ मे स्थित गिरनार ७. कषायप्राभूत(कषायपाहुड) एवं षट्खंडागम की रचनाओं (गिरनार पर्वत) को चन्द्र गुफा में रहते थे। देखिये की तुलना के लिये "कषायपाहुर सुत्त" सम्पादनादिवृहट्टिपणिका जं. सा. सं. १-२ परिशिष्ट योनिप्राभूत . हीरालाल जैन, कलकत्ता। (शेष पृ० १६ पर)

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