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मनमानी व्याख्याओं का रहस्य क्या है ?
पद्मचंद्र शास्त्री, संपादक 'अनेकान्त'
जैनियों की परम्परा मे 'देव-शास्त्र-गुरु' इस क्रम के बड़ा दर्जा दिया गया है और शास्त्र को मुल-ग्रंथ संज्ञा दी उच्चारण का प्रचलन रहा है और वीतराग-देव की देशना गई है । ग्रन्थ इस नए कि उममें ज्ञान-रूप जिनवाणी को को ग्रागम, शास्त्र, सिद्धान्त आदि नाम दिए जाते रहे है द्वादशांग रूप में अथित किया गया है-गंथा गया हैऔर गरु को भी ऐसा आदेश रहा है कि वह जिनवाणी ___'गणधर गंथे बारह सुप्रंग' । मूल मे तो वह सर्वज्ञ की ही के अनकल आचरण करे। इसका भाव ऐसा है कि देव बागी है.-'मूलग्रन्थकर्तारः श्री सर्वजदेवाः। ---अत: जिन पहले नम्बर पर, आगम दूसरे नम्बर पर और गुरु नीसरे वाणी का कम वीतरागदेव के बाद काही क्रम है तथा गुरु नम्बर पर है। इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि का क्रम तीसरा है। ममोसरण में वीतराग देव का आसन सर्वोच्च होता है, गुरु का आसन नीचे होता है और बीच मे तीर्थकर की हमे (जैसा कि श्री रतन नाल कटारिया भी कह रहे दिव्यध्वनि प्रवाहित होकर गुम तक पहुचती है और इस है) 'अकिंचित्कर' पुस्तक में पृ० ७०, ७४ तथा 'प्रवचनभांति आगम का स्थान मध्य में ही ठहरता है। अत: 'देव. पारिजात' पुस्तक द्वितीय सस्करण सन् ८१, १० १५,६६, शास्त्र-गुरु' यही क्रम सुसगत है ।
१०. पर और हाल ही में जुलाई ८६ की 'बावनगजा
सन्देश' नामक पत्रिका, TO E पर प्रकाशित 'शान्ति का सभी जानते है कि गुरु-चारित्र के प्रतीक है और
मार्ग शाम्बो में' शोषक ने 'देवगरुशास्त्र' जैसा कम देख'सम्य साथै ज्ञान' के बाद ही वारित्र का क्रम आता
कर आश्चर्य और खेद हा नि. जहाँ शान्ति का मार्ग शास्त्रो है और हमी कम में 'सम्पग्दर्शन-शान-चारिमाणि' गूत्र की
मे बताया जा रहा है वही शास्त्र को गुरु के बाद स्मरण रचना: । अत: गुरु का कम हर हालत में ज्ञान (आगम)
किया जा रहा है। ऐसे में शीर्षक होना चाहिए था-- के बाद ही पाता है। फिर, आचार्या ने यह भी कहा है
'शान्ति का मार्ग गुरुओं गे' । भल ही यह बाद को सोचना कि प्रागमचकावू साह' अर्थात् साधु की आँखे शास्त्र है।
रह जाता कि कौन से गुरुओं से वर्तमान के या भूत के ? इसका भाव भी यही है कि गुरु से आगम का स्थान पहले
की यह कोई योजनाबद्ध प्रक्रिया तो नही-जिमका है और इसीलिए गुरु मुनि) की समस्त चर्या आगम के
विरोध श्री कटारिया जी और जैन-सन्देश के मम्पादक अनुरूप होने जैसा विधान है।
डा० देवेन्द्रकुमार जैन भी कर रहे हैं? कही शास्त्रोको गह बात तो विवादरहित है कि आगम 'आप्नोपज्ञ गुरुनाणी मिद्ध करने के लिए तो यह सब नही किया जा और अनूर लध्य है, क्योकि वह मज-प्रणीत है.-छद्मथ- रहा? शास्त्री के मूल शब्दरूपा को बदलने की क्रिया तो प्रणीत नी है। जब कि मभी भाचार्य छद्मस्थ होते है, पहले एक विद्वान् कर ही चुके हैहालाकि उसका जमउनको वाणी स्वत: प्रामाणिक भी नही मानी गई है . कर विरोध हुआ ओर चोटी के विद्वानो ने भी विरोध उन्हें सर्वज्ञ की देशना के अनुरूप ही कथन करने का आगम । प्रणित किया और कर रहा है। इसके सिवाय कई जगह मे विधान है। कुंदकुद जैसे रातीय आचार्य भी 'चक्किज्ज' आगमो की कई व्याख्या परपरित व्याख्याओं में विपरीत जैसा शब्द कहकर आगम को गुरु से ऊपर मानने का यद्वा-तद्वा रूप में करने की परिपाटी चल पड़ी है और आदर्श दे गए हैं । फलतः-सभी भांति शास्त्र को मुनि से स्वतन्त्र रूप म आगम-विरुद्ध लेखन भी हो रहे हैं।