Book Title: Anekant 1989 Book 42 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 107
________________ मुनि-रक्षा परम अहिंसा है जब हम अपरिग्रह और महाव्रतो की बात करते हैं, तब कई साधु (?) समझ लेते है कि हम उनकी चर्चा कर रहे है, चाहे वे अपरिग्रह की श्रेणी मे न जाते हों। हम स्पष्ट कर दें कि हमारा उद्देश्य अपरिग्रह और अपरिग्रही की व्याख्या होता है, न कि परिवह और परिग्रही की व्याख्या । पाठको को याद होगा कि पिछली बार हम अपरिग्रह को जैन का मूल बता चुके है। अपरिग्रही के कुछ नियम है, जिनका उसे निर्दोष रूप में निर्वाह करना होता है। यदि प्रमाद-त्रण दोष लग जाय तो उसका प्रायश्चित करना होता है। स्मरण रहे कि अनजान मे हुए व्रतघात का नाम दोष है और जानकर किया गया व्रतघात व्रत का खंडित होना है । अपरितको अपरिग्रही रहने के लिए सतत रूप मे निरतिचार अहिंसा, सत्य, अयोयं ब्रह्मचयं इन पांच महाव्रतों का पालन करना होता है-ईर्या, भाषा, एषणा, आदान निक्षेपण, उत्सर्ग इन पाच समितियो का पालन करना होता है। पांचो इन्द्रियो का शमन करना होता है। भावनाओं सहित समता, वन्दना, स्तुति, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय, कायोत्सर्ग इन छह आवश्यको का पालन करना होता है। केशलुचन, एक बार आहार, खड़े होकर आहार और स्नान का त्याग, भूमिशयन, और नग्नता धारण दातुन ये अपर के २८ कठिन नियम (मूलगुण) होते हैं। उक्त नियमो का पालन खाला जी का घर नही- टेढ़ी खीर है। अपरिग्रही इन नियमों मे दृढ़ रह सके, और आपत्ति आने पर उसे सहन कर सके, इसके लिए उसे क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दश-मशक, नग्नत्व, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शैय्या, प्राक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार-पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन इन परीषहों के जय का अभ्यास करना पड़ता है। अपरिग्रही व्यक्ति अपरिग्रह व्रत में दृढ़ता और कर्म 1 पद्मचन्द्र शास्त्री, संपादक 'अनेकान्त' कृश करने के लिए अनशन, अवमोदर्य, वृत्तपरिसख्यान रस-परित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश इन तपों को करता है और अन्तरग के प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्व ओर ध्यान इन छह तपों को पता है। सामयिक छेदोपस्थापना, परिहार- विशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात इन पांच प्रकार के वारि की बढ़वारी करता है क्षमा मार्दव, आर्जव, शोच, सत्य सयम, तप, त्याग, अकिंचन और ब्रह्मचर्यं इन दश धर्मो को पालता है। निरन्तर दाइ अनुप्रेक्षाओ का चिन्तन करता है । अपने को अपरिग्रही घोषित करने वाला कोई व्यक्ति यदि हमसे कहे कि वह अपरिग्रही है, तो हमें क्या ऐतराज ? भला, हम सत्यमहाव्रती का अविश्वास क्यों करे और क्यो ही उम पर कोई आरोप लगाएं ? हम तो हमारे हम सफर भावकों से ही प्रार्थना कर सकते हैं कि वे अपरिग्रही की सही पहचान के लिए उसमें ऊपर लिखी बातें देख ले। प्रायः देखा गया है कि अधिकांश लोग मात्र नग्नता और पोछी- कमण्डलु को अपरिग्रही की पहचान मान बैठे हैं, जिसका परिणाम सामने है आए दिन कतिपय पीछोकमण्डलु धारकों के विषय मे समाचार-पत्रों में छपने वाली विसंगत चर्चाएं चर्चाएँ यदि तथ्य से परे होती हैं, तो चर्चाओ पर रोक क्यों नही, प्रोर यदि सत्य होती हैं, तो सुधार के प्रयत्न क्यों नही ? --- हम बहुत दिनों से देव-शास्त्र-गुरु रूप तीन रत्नों की बात कह रहे है । वर्तमान में देव अप्राप्य हैं, शास्त्रों का अस्तित्व खतरो से गुजर रहा है तथा लोगो को तलस्पर्शी ज्ञान भी नहीं है। ऐसे मे केवल आचार ( चारित्र) के प्रतीक गुरुगण ही हमारे मार्ग-दर्शक है । यदि हम इनको भी सुरक्षित न रख सके तो धर्म गया हो समझिए, हमारा कर्तव्य है कि हम अपरिग्रहत्व के जगम रूप की

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