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मनमानी व्याख्याओं का रहस्य क्या है ?
उन्होंने कही भव्यत्व भाव के सम्यग्दर्शन- सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप में परिणत हो जान जैसा काई निर्देण ही दिया । भला, जब ससारी जीव मे रहने वाला मव्यत्व भाव सर्वथा कर्म आदि से निरपेक्ष और जीव का मोतिक योग्यता को इंगित करने मात्र से सम्बन्धित है, तब सम्पर दर्शन-ज्ञान-वार से तीनों उपशम क्षयोपशम क्षय की अपेक्षा रखने वाले व जीव को स्ववाक्ति रूप है अत दोनो के एक दूसरे रूप परिणत होने की बात धार ठहरती है क्योंकि दोनों ही दिखना है एक व्यक्तत्व की योग्यता परिचायक रूप और दूसरे यानी रत्नत्रय - जीव के स्व-स्वभाव रूप है। एक ससार दशा तक सदाकाल और अपरिवदित रहने वाला और दूसरे तीनो शक्ति या व्यतित्वरूप में संसार जीर मुक्त दोनो अवस्थाओं में सदाकाल रहने के स्वभाव वाले है। तथा जीव का त्रिकाली स्वभाव न होने से भव्यत्व-भाव का अन्त होता और जीव के हो सेय (सम्यग्दर्शन) ज्ञान और चारित्र का जाव में त्रिकाल भी ( शक्ति अपेक्षा भी) अभाव नहीं होता हा, ससारी दशा म इनकी कर्म सापेक्ष सु-रूपता अथवा विरूपता अवश्य होती है। ऐसी स्थिति में लिख देना कि सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान और सम्यकचारित्ररूप परिणत जो भव्यत्व भाव है'पृ० २०, सर्वथा आगम के विरुद्ध है। जबकि भव्यत्वभाव अन्य किसी रूप में भी परिणत नहीं होता ।
लिखी है। इनमे वर्त
यहा हमें व० श्री राकेश की वे पक्तिया की याद है, जो उन्होंने 'समयसार द्वितीय संघ के प्रारम्भिक 'सम्प्रति' शीर्षक मे २५६ मान आचार्य श्री विद्यासागर जी को प्रेम का संकेत सा है कि उनके गुरु प्रामाणिक है। तथाहि ब्र० जी न लिखा है- " मैने कई लोगो से कहते सुना, आचार्य विद्यासागर जी को, कि 'समयगार' भी हिन्दी में पढना है तो आचार्य ज्ञानसागर महाराज की टीका से पढी(आदि) फलत हम उसी को पढ़ रहे है ।
उक्त ग्रंथ में आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति का भावानुवाद (आ० ज्ञानसागर महाराज कृत है। पाठको
की जानकारी के लिए हम दोनो को उद्धृत कर रहे है। पाठक देखें कि वहा भव्यत्व-भाव के रत्नत्रय रूप में परिणत होने की बात कही है, या जीव क भावा को रत्नत्रय रूप परिणत हो की बात कही है ? हम निर्णय उन्ही पर छोड़ते है | नवा
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तात्पर्यवृत्तिच यदा वालादिराव्धिवशेन भव्यवक्तव्यक्ति जीव मामक भावलक्षणनिजप मात्मद्रव्यस्य ज्ञानुचरणपर्या
रूपेण परिणम तच्च परिणमन गमभाषयोऽशमिक क्षयोपशमिक्ष'यिक भावत्रय भण्वत'
तात्पर्ययत्ति गाथा १४३ में
भाषानुवाद- "जब बाल आदि लब्धियों के वश से भव शक्ति की अभिव्यक्ति होती है तब यह जोव सहजशुद्ध पारिणामिक भाव को रखने वाली ऐसे निज आत्म द्रव्य के सम्यक् श्रद्धान्, ज्ञान और आचरण की पर्याय के रूप में परिणमन करता है उस हो परिणमन को आगम भाषा में औपशमिक, क्षायोपशमिक ओर क्षायिकभाव इन तीन नामो से कहा जाता है ।"
समयसार, गाथा ३४३, पृ० ३०३-४
उक्त टीका की पुष्टि अन्य आगमा से भी होती है । सभी मे जीव के भावो के रत्नत्रय रूप में परिणत होने की ही पुष्टि की है, न कि भव्यत्वभाव के रत्नत्रयरूप परिणत होने की। जैस
१.भावेन भविष्यतीति भव्य:' ( जीवः)
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प्रात्मा भविष्यतीति
२ सम्यग्दर्शनादि पर्यायेण य भव्य ' (जीव )
तत्वार्थ २७१७ ३. सद्धत्तणस्स जोगा जे जीवा हवति भवसिद्धा ।'
४. 'मोक्ष हेतुरनरूपेण भव्यः' (जीव )
ध० १, पृ० १५० भवन परिस्थतीति
लोभ पृ. २६