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आचार्य कुन्दकुन्द एवं उनके सर्वोदयवादी सिद्धान्त
प्रो० (डॉ०) राजाराम जैन
विश्व संस्कृति के उन्नायकों में आचार्य कुन्दकुन्द का समकालीन जनभाषा-प्रयोग स्थान सर्वोच्च है। उसका कारण यह नहीं कि वे किन्हीं आधुनिक दृष्टि से यदि विचार किया जाय तो प्राचार्य भौतिकवादी चमत्कारो के द्वारा जनता को अपनी ओर कुन्दकुन्द अपने ममय के एक समर्थ जनवादी सन्त विचाआकर्षित कर अथवा किसी राजनैतिक दल को संगठित रक एवं लेखक थे। इस कोटि का लेबर बिना किसी कर सभी पर अपना प्रभाव डालते थे । बल्कि उसका मूल वर्गभेद एव वर्णभेद की भावना के, प्रत्येक व्यक्ति के पास कारण यह था कि वे लोकहित में जो भी कहना एवं पहचने का प्रयत्न करता है और उसके सुख-दुख की जानकरना चाहते थे, एक महान वैज्ञानिक की भांति वे अपने कारी प्राप्त कर उन्हें जीवन के यथार्थ सुख सन्तोष का विचारी एवं सिद्धान्तो का अपने जीवन मे ही सर्वप्रथम रहस्य बतलाना चाहते हैं । यह तथ्य है कि जनता-जनार्दन प्रयोग करते थे और उनकी सत्यता का पूर्ण अनुभव कर से घलने-मिलने के लिए किसी भी प्रकार की साज-सज्जा बाद मे उनका प्रचार करते थे। उनके सिद्धान्त मानव- तथा वैभवपूर्ण आडम्बरी की आवश्यकता नहीं होती, मात्र तक ही सीमित नहीं थे, अपितु प्राणिमात्र तक विस्तृत क्योकि उनकी तडक-भडक स सामान्य जनता उनसे थे और उनके प्रादर्श केवल भारतीय सीमा के घेरे तक ही विश्वास पूर्वक घल-पिल नही पानी। इसीलिए लोकहित सीमित नही थे बल्कि अखिल विश्व के समस्त प्राणियो के ।
की दृष्टि से कुन्दकुन्द ने आने कार का वैभव छोडा, गृहलिए थे अर्थात् उन: मिद्धान्न सार्वजनीन सार्वकालिक त्याग किया, निर्ग्रन्थ-वेश धारण किया, पद-यात्रा का एव मार्वभौमिक थे। ऐसे महान साधक, विचारक एव आजीवन व्रत लिया और सबसे बडी प्रतिज्ञा यह की, कि उपदेष्टा को आधुनिक भाषा-शैली में लोकनायक अथवा वे सामान्य-जनता के हियार्थ लोकप्रचालत जनभापा का गर्वोदय के महान प्रचारक की सज्ञा प्रदान की जाती है। ही प्रयोग करेंगे, उसी में प्रवचन करेंगे, उसी में बोलेगे,
उमी मे मोचेंगे और उसी म लिखेगे भी। वे कभी भी प्रस्तुत लघु निबन्ध में आचार्य कुन्दकुन्द के जीवन वृत्त का ऊहापाह नही बल्कि उनके उपदेशो एव कार्यों का ।
किमी सीमित दरबारी-भाषा का प्रयोग नही करेंगे। इस
दृढ व्रत का उन्हान आजीवन पालन किया भी। पतमान सन्दभा में संक्षिप्त मल्याकन करना ही शान उद्देश्य है। अत: यहा तद्विषयक क्षपने दृष्टिकोण प्रस्तुत आचार्य कुन्दकुन्द के समय की (अर्थात् आज से दो करने का प्रयत्न किया जा रहा है। मेरी दृष्टि से जैन
हजार वर्ष पूर्व की) जनभाषा को भाषा-शास्त्रियो ने दर्शन के क्षेत्र में मौलिक चिन्तन के अतिरिक्त भी काचार्य "प्राकृत-भाषा" कहा है। कुन्दकुन्द के पूर्व भी प्राकृतो का कुन्दकुन्द के निम्नलिखित कार्य विशेष महत्त्वपूर्ण है :
प्रयोग होता आया था। पूर्व-तीर्थ करो के साथ-साथ पार्व. १. स्वरचित साहित्य मे समकालीन लोकप्रिय जन- नाथ, महावीर एव बुद्ध ने अपने-अपने प्रवचनो में जनभाषाभाषा (जैन शोरशेनी--प्राकृत) का आजीव प्रयोग, प्राकृत का ही प्रयोग किया था। यही नहीं, प्रियदर्शी
सम्राट अशोक ने भी अपने अध्यादेण जनभाषा-प्राकृत में २. सर्वोदयी संस्कृत का प्रचार, तथा
ही प्रसारित किए थे तथा कलिंग-नरेश खारवेल ने भी ३. राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता के लिए प्रयत्न। अपने राज्य-काल का पूर्ण विवरण जनभाषा-प्राकृत मे ही