Book Title: Anekant 1989 Book 42 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 141
________________ ३०, वर्ष ४२, कि०४ पहिले उन पदार्थों के स्वभाव का चिन्तन किया जो ख्याति और मान-बडाई के लिये । इन्होंने अनेकों साधु, सामान्य जगत को भी इन्द्रियग्राह्य-रूपी और पर थे। मंन्यासी और मोही-ज्ञानियों तक को खरीद रखा है-- इसीलिए उन्होने बारह भावनाओं के चिन्तन द्वारा पहिले धन-वैभव और नांदी के टुकड़ों को डालकर । अन्यथा, पर-पदार्थों में विरक्ति ली। संमार के अनिन्य, अशरण जैसी खिलबाड़ आज धर्म के नाम पर चल रही है, बह आदि स्वरूप का महमह चिन्तन किया और उनसे विरक्त न होती-साधु और पडित धर्म के मूल परिग्रह के पाठ होकर दष्टिगोचर बाह्य से निवृति ली। बाह्म-निवृति हो को पीछे न फेक देते। जाना हो तो स्वात्म प्रवृत्ति है । स्मगा रखना चाहिए कि मे बड़ा अटपटा-सा लगता है जब हम आचार्य रागे प्राणी की पकड आत्मा पर गसम्भव है और वह कुन्दकुन्द की द्वि महस्राब्दी मनाने के ढंगों को देखते है । इन्द्रियान-ग्राह्य को ही, सरलता से पहिचान सकता हैउसकी अमारता को जानकर उममे केवल विरक्त हो कुन्दकुन्द के प्रति दिखावटी गुणगानो को देखते है और सकता है। कुन्दकुन्द द्वारा बतलाये हुए मार्ग को अवहेलना को देखते हैं। जो आचार्य अपनी चरम सीमा पर पहुंच चुके है उन्हें पर, आज उल्टे मार्ग पर चलने की कोशिश की जा लोग निष्फल ढो रहे हैं, उन्हे दूरदर्शन और आकाशवाणी रही है..-अरूपी आत्मा को देखने-दिखाने, पहिचानने नक ले जा रहे है जैसे वे कुन्कुन्द की ख्याति में चार पहिचनवाने की चर्चा चल रही है और साक्षात् दिखाई चाद लगाते हों, खेद ? भला, लो लोग स्वय को कुन्दकुन्द देने और इन्द्रिय गोचर होने वाले नश्वर पदार्थों की के उपदेशानुकूल न ढाल सके हो, उनकी बात न मानते विरक्ति से मुख मोड़ा जा रहा है-परिग्रह का सचय हो, उन्हे क्या अधिकार है कुन्दकुन्द के नाम तक के लेने किया जा रहा है। ऐसे मे आत्मा का अनुभूति मे आना का? ऐसे विश्रीन कार्य तो परिग्रह-सचय-दृष्टि ही कर कैसे सम्भव है ? इसे पाठक विचारें। सकते हैं। हम तो जहाँ तक समझ पाए हे वह यही है कि लोगो बुरा न माने, क्या कुन्दकुन्द द्वारा निर्मित आचारकी परिग्रह वृत्ति ने आत्मचर्चा करने में लगे रहने के बाद संहिता की अवहेलना कर, नई आचार संहिता बनाने का भी उन्हे आत्मा से दूर रखा है, यहां तक कि वे बाह्या प्रसंग उठाना दी द्वि-महस्राब्दी मनाने की सार्थकता है ? चार को भी भुलावा मान बैठे है। यद्यपि वे व्यवहारिक क्या, उक्त प्रस्ताव का अर्थ यह नही होता कि वर्तमान सभी कार्य कर रह है--पूजा: प्रतिष्ठादि में भाग ले रहे मुनि शिथिलाचार के समक्ष अपने हथियार डालने को है-श्रावक और साधु को पहिचान भी उनके बाह्याचार सनद्ध है और हम जैसे-तैसे उन्हे समर्थन देने के मार्ग से कर रहे है। फिर, मजा यह है कि वे जिसे हेय बता खोज रहे है ? और वर्तमान मुनियो की दशा आज किसी रह है, उसी से चिपके जा रहे है। अहिमा का नारा दे, से छिपी नही है-कही-कही तो घोर अनर्थ भी हो रहे परिग्रह को आत्मसात् किये जा रहे है। अन्यथा इन है। क्या ऐसी दशा में कुन्दकुन्द द्वारा निर्मित आचार वक्ताओं और वाचको से पूछा जाय कि इनके भाषण से कितनों ने आत्मदर्शन किये और कितन परिग्रह से मुख संहिता को आगे लाना और मुनियों व श्रावकों को तदनु रूप आचरण करने को मजबूर करना कुन्दकुन्द द्विसहमोड़ गये? स्राब्दी की सार्थकता नही ? जो नई सहिता बनाने का तब तीर्थकरो ने परिग्रह से मुख मोडा और अब सच्चे प्रस्ताव है ? और कुन्दकुन्द की सहिता को पीछ किया जा ज्ञानी लोग इन परिग्रहियो से भयभीत हैं कि कही ये रहा है, खेद। परिग्रही उन्हे भी परिग्रही न बना दें ? आखिर, इन परि. ग्रहियों ने लेने के साथ देने का धन्धा भी तो बना रखा कुन्दकुन्द ने समयसार रचा और आचार्य अमतचन्द्र है-ये लेते अधिक ओर देते कम है। ये देते है अपनी ने अमृतकलश । उन्होने 'स्वानुभूत्या चकासते'-~आस्मा

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